ऐलिसन बुश, अनुवाद रेयाज़ुल हक़ , के किताब केसव सुनहु प्रबीन का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
हिन्दी साहित्य के इतिहास का विऔपनिवेशीकरण
सोलहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक भारतीय दरबारों में रचे गये हिन्दी या ब्रजभाषा रीति साहित्य को आधुनिक काल में परखने की जो श्रेणियाँ बनीं, उनका विकास भारत में न होकर यूरोप में हुआ था। यह मानना कि कविता मानस के अन्तःस्थल से स्वतः उद्भूत होती है और वह कवि की निजी भावनाओं को सरल-सहज रूप से अभिव्यक्त करती है तथा समाज के लिए उपयोगी होती है, दरअसल उन्नीसवीं सदी के यूरोप में रोमांटिक दौर में पैदा हुए मानक थे। इन मानकों की स्वयं यूरोप में कोई लम्बी परम्परा नहीं थी क्योंकि रोमांटिक दौर से पहले कविता वहाँ भी पूर्व-स्थापित क्लासिकल मानकों से प्रभाव ग्रहण किये बिना सम्भव नहीं थी। अर्थात् ‘कविता की रीति’ को लेकर स्थापित सिद्धान्त भारत की तरह यूरोप में भी उतने ही प्रतिष्ठित थे। उन्नीसवीं सदी के रोमांटिक दौर में प्रचलित हुए मानक ब्रिटिश सत्ता के भारत से सम्पर्क में आने के साथ ही यहाँ भी प्रचलित होते हैं। इस तरह उपनिवेशवाद राजनीतिक सत्ता ही नहीं सौन्दर्यबोधीय निरंकुशता को भी भारत लाया। ब्रिटिश-औपनिवेशिक साहित्यिक मानकों का बहुत गहरा प्रभाव हिन्दी साहित्य के इतिहास-लेखन पर पड़ा। इससे हिन्दी इतिहास और आलोचना में बहुधा रीति साहित्य को एक पतनशील मध्यकालीन संस्कृति का उत्पाद मान लिया गया। हम अगर इतिहास और साहित्यिक संस्कृति का विऔपनिवेशीकरण चाहते हैं तो हमें हिन्दी अतीत को इन मानकों से बाहर निकालकर परखना होगा।
केशवदास जैसे रीतिकवियों ने अपनी विषयवस्तु और काव्य-शैली के लिए संस्कृत काव्य को आधार बनाया था। इससे देशभाषा में कविता की संभावनाएँ खुलीं, उसके ‘कंटेंट’ को व्यापकता मिली, वह शास्त्रीय रूप से समृद्ध हुई और उसे विस्तृत स्वीकृति मिली। इस प्रक्रिया में संस्कृत के बजाय देशभाषा में सुन्दर, परिष्कृत रचना के लिए कवियों ने आत्मविश्वास हासिल किया और साहित्य लेखन के क्षेत्र में ब्रजभाषा ने धीरे-धीरे संस्कृत की जगह ले ली। दूसरी सहस्राब्दी में देशभाषाकरण की यह प्रक्रिया वैश्विक थी। क्लासिकल चीनी साहित्य के संवाद के ज़रिए ही जापानी साहित्य का उद्भव हुआ। यूरोप में यूनानी व लैटिन काव्य को आधार बनाकर रोमन, फ़्रेंच, इतालवी और जर्मन कवियों के उभार की भी यही कहानी रही है। इन कवियों को उनकी परम्परा में उच्च स्थान हासिल है। केशवदास, चिन्तामणि, मतिराम आदि रीतिकवि अपने काल में जितने सम्मानित थे वे आधुनिक काल में उतने ही निन्दा के पात्र बन गये। इसके लिए हिन्दी की राष्ट्रवादी और मार्क्सवादी दोनों आलोचना परम्पराएँ ज़िम्मेदार हैं। आधुनिक इतिहास और आलोचना की कोटियों से बाहर निकलकर ब्रजभाषा या क्लासिकल हिन्दी के कवियों और उनकी साहित्यिक उपलब्धियों को इसीलिए समझा जाना ज़रूरी है।
दरबारी सन्दर्भ में लिखे साहित्य को मुग़लकाल में संस्कृति का एक विशेष क्षेत्र माना जाता था। दरबारी परिवेश साहित्य में रूप और शैली को विशेष महत्त्व देता था। संस्कृत इन दोनों क्षेत्रों में सदियों से प्रतिष्ठित थी। इसलिए उस काल के कवि भले ही किसी भी भौगोलिक क्षेत्र से आये हों, उनके लिए ज़रूरी था कि दरबारी साहित्य वे उसी भाषा में लिखें जिस भाषा ने एक जटिल प्रक्रिया से गुज़रकर उच्च स्थान हासिल किया था। ब्रजभाषा ऐसी ही देशभाषा थी। ऐतिहासिक रूप से मुग़लों और राजपूतों का साथ आना जिससे अकबर के काल से वृन्दावन में कृष्ण मन्दिरों को प्रश्रय मिलना, सूफ़ी स्थानों और सन्तों को प्रश्रय मिलना, साथ ही ध्रुपद आदि हिन्दुस्तानी संगीत की मुग़ल दरबार में प्रतिष्ठा होना तथा एक ‘मुग़ल रसिक’ का विकास होना सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में चल रही ऐतिहासिक प्रक्रिया थी। इसके समानान्तर, और बहुत कुछ इसी प्रक्रिया से समर्थित, भक्ति कविता और कृष्ण-भक्त वैष्णव समुदायों का उभार होने से ब्रजभाषा सोलहवीं सदी से ही अपार लोकप्रियता हासिल कर रही थी। इसलिए केशवदास जैसे रीति कवि सजग रूप से ब्रजभाषा का चुनाव कर रहे थे।
वैष्णव सांस्कृतिक सन्दर्भ में उभरी ब्रजभाषा को केशवदास आदि रीति कवियों ने ऐतिहासिक चरित-काव्य, दरबारी महाकाव्य, छन्द, अलंकार और रस-शास्त्र, कवि-वंश-लेखन, राज-वंशावली, राजप्रशस्ति, भव्य और सचित्र पाण्डुलिपियों, हिन्दुस्तानी संगीत, नगर-वर्णन व तीर्थाटन, योग साधना, आयुर्वेद व युद्धनीति के सैकड़ों ग्रन्थों की भाषा बनाया। सोलहवीं सदी से उन्नीसवीं सदी तक ब्रजभाषा राजस्थान से लेकर असम और हिमाचल से लेकर दक्कन तक के भूभाग में उच्च अभिरुचि के काव्य और अभिव्यक्ति की भाषा बन गयी थी। शैल्डन पोलक के शब्दों में कहें तो यह एक सार्वदेशिक देशभाषा या ‘कॉस्मोपॉलिटन वर्नाक्यूलर’ बन चुकी थी। दुर्भाग्य से आधुनिक काल में ब्रजभाषा को हिन्दी की एक ‘बोली’ बता दिया गया और इसका अध्ययन उन हिन्दी विभागों में सीमित रह गया जिनके अपने संकुचित मानदण्ड थे। जबकि इसका पुनर्मूल्यांकन किये बिना भारत में इतिहास-लेखन की परम्पराओं को समझा नहीं जा सकता और भारत में ‘इतिहास न होने’ के हेगेलियन और जेम्स मिल्सियन पूर्वाग्रहों को तोड़ा नहीं जा सकता। ऐलिसन बुश के अनुसार रीति कविता और ‘कोर्ट कल्चर’ या दरबारी परिवेश एक-दूसरे पर आश्रित थे। बृहत्तर हिन्दुस्तान में फैली यह साहित्यिक संस्कृति बहुभाषी व समावेशी थी। इसलिए रीति कविता को जाने बिना भारत के बहुलतावादी अतीत को समग्रता में नहीं समझा जा सकता।
एक रीति कवि का उदय
केशवदास सत्रहवीं सदी की दहलीज़ पर खड़े भारत के साहित्यिक रूपान्तरणों को सबसे प्रभावशाली ढंग से बयान करते हैं। ओरछा के ये कवि ऐलिसन बुश के चिन्तन के आधार हैं। सोलहवीं सदी की शुरुआत में ग्वालियर के तोमर राज्य के विघटन के बाद ओरछा आये षड्दर्शन के पण्डित, पुराणों के विद्वान, एक ब्राह्मण परिवार में केशवदास का जन्म होता है। केशवदास के “भाखा बोलि न जानई जिनके कुल को दास” को हम जानते ही हैं। पारिवारिक विरासत में मिली संस्कृत को छोड़कर देशभाषा को अपनाना केशवदास का क्रान्तिकारी क़दम था। देशभाषा कविता में नाथ-सिद्ध बानियाँ, पूरब के सूफ़ियों, पश्चिम के जैनियों और चारण-भाटों, तुलसीदास और सूरदास का काव्य, ब्रजमण्डल के कृष्ण-भक्त सम्प्रदायों द्वारा विकसित कविता, तथा सम्भवतः ओरछा में आश्रय पाये कृपाराम के नायिकाभेद सम्बन्धी काव्य आदि केशवदास को विरासत में मिले थे जो उनकी कविता के उभार की सांस्कृतिक शर्त थे। लेकिन उनकी कविता के उभार की राजनीतिक शर्त मुग़ल-राजपूत व्यवस्था थी। ओरछा राज्य मधुकरशाह (शासनकाल सन् 1554-1592) के समय से ही मुग़ल साम्राज्य का हिस्सा बनने की प्रकिया में था। विविध विषयों पर लिखे केशवदास के आठ ग्रन्थ इस नयी बनी ऐतिहासिक व्यवस्था की भूमि पर उपजे।
केशवदास का पहला ग्रन्थ ‘रतनबावनी’ (सन् 1580 का दशक) रासोकाव्य के पराक्रम, भक्ति की अन्तरंगता व आत्मसमर्पण, ‘भगवद्गीता’ के महाकाव्यात्मक वैभव को आधार बनाकर मुग़लों से हार के बरक्स बुन्देलों के शौर्य का वर्णन है, जिसमें क्षत्रिय-मूल्यों की प्रतिष्ठा की गयी है। मुग़ल-राजपूत गठजोड़ में विकसित हो रही एक नयी साहित्यिक संस्कृति, जिसे बाद में रीति-काव्य कहा गया, के सरोकारों का परिचय करवाने वाली तीन प्रभावशाली रचनाएँ केशवदास की ‘रसिकप्रिया’ (सन् 1591), ‘कविप्रिया’ (सन् 1601) और ‘छन्दमाला’ (सन् 1602) हैं। वैष्णव-भक्ति और सौन्दर्यबोध को आधार बनाकर लिखे गये ये तीन ग्रन्थ ब्रज को दरबारी गरिमा प्रदान करते हैं और ब्रज के ‘क्लासिक’ भाषा बनाने में महती भूमिका निभाते हैं। इन ग्रन्थों में ‘बालक-बािलकाओं’ की शिक्षा, विशेषकर अभिजात वर्ग के शिक्षण की चिन्ताएँ समायी हुई हैं। इनके लेखन के बाद संस्कृत के वाल्मीकि से अपना सम्बन्ध जोड़ते हुए केशवदास भक्ति के आलोक में अपनी ‘रामचन्द्रचन्द्रिका’ (सन् 1601) लिखते हैं। केशवदास का ‘वीरसिंहदेवचरित’ (सन् 1607) एक नये उभरे राजपूत राजा का चरित है जो समकालीन राजसी वैभव का सौंदर्यकरण करता है। एक राजा का ‘राजसी आत्म-प्रस्तुतीकरण’ करता यह ग्रन्थ ब्रजभाषा में इतिहास-लेखन का सशक्त उदाहरण भी है। मुग़ल व अन्य राजपूत दरबारों से ओरछा के सम्पर्क, ओरछा नगर में बन रहे मन्दिर व भक्तों के समाधि-स्थल व जलाशय, ओरछा नगर-वर्णन, जहाँगीर का अकबर से विद्रोह, अबुल फ़ज़ल की हत्या, ओरछा में उत्तराधिकार का संघर्ष आदि घटनाओं के ब्योरों पर आधारित यह रचना उस काल का इतिहास है। यह ग्रन्थ केशवदास को विरासत में मिली काव्य-परम्परा का समकालीन सन्दर्भ में आधुनिकीकरण तो है ही, साथ ही एक राजा के नैतिक रूप से उच्चता के दावों और राजनीतिक सामर्थ्य का मूर्त रूप भी है। उस काल में कवियों के पास अतीत के ज्ञान की सांस्कृतिक पूँजी होती थी जिनसे तत्कालीन राजा आध्यात्मिक और नैतिक मार्गदर्शन लेते थे। केशवदास का वीरसिंह के निजी पठन के लिए लिखा गया अगला ग्रन्थ ‘विज्ञानगीता’ ऐसी ही रचना है। यह ग्रन्थ राज-धर्म पर एक बौद्धिक चर्चा भी है।
अपने पहले ग्रन्थ ‘रतनबावनी’ में मुग़लों से राजपूत टकराव से अपनी जिस साहित्यिक यात्रा की शुरुआत केशवदास करते हैं, वह उनके अन्तिम ग्रन्थ ‘जहाँगीरजसचन्द्रिका’ (सन् 1612) में मुग़लों से समृद्ध गठजोड़ पर ख़त्म होती है। प्रसिद्ध कवि रहीम के पुत्र इराज शाहनवाज़ सम्भवतः इस कृति के संरक्षक थे, जो केशवदास से मार्गदर्शन पाते हुए इस ग्रन्थ में चित्रित किये गये हैं। यह ग्रन्थ केशवदास का मुग़ल दरबारी वर्ग से सम्पर्क दिखाता है। केशवदास इस समय भले ही मुग़ल फ़ारसी संस्कृति के सम्पर्क में आये हों, उनकी कविता पर फ़ारसी प्रभाव बहुत ही कम है। वे सशक्त रूप से संस्कृत की अपनी विरासत को ही देशभाषा काव्य में अपनाते हैं। इस ग्रन्थ में वे जहाँगीर को एक हिन्दू भक्त के रूप में चित्रित करते हैं। भक्ति और रीति दोनों संवेदनाएँ एक साथ लिये केशवदास भक्तिकाल के ‘फुटकल’ कवि नहीं, बल्कि ऐसे दरबारी व्यक्ति थे जो कवियों की आने वाली पीढ़ी के लिए मिसाल बन गये। उनके जैसी कविता लिखना आगे आने वाले कवियों के लिए, तथा मुग़ल-राजपूत दरबारों के लिए, अभिलाषा की वस्तु बन गया।
ब्रजभाषा कविकुल
भारत शास्त्र-निर्माताओं की उर्वर भूमि रहा है। संस्कृति, समाज या राजकाज का कोई भी क्षेत्र भारत में सिद्धान्त-निर्माण से परे नहीं था। सिद्धान्त एक ज्ञानात्मक आवश्यकता भी थी जो व्यवहार से पहले आती थी। रीतिग्रन्थ ऐसे ही साहित्यिक व्याख्या हेतु लिखे सैद्धान्तिक ग्रन्थ थे। ऐलिसन का कहना है कि रीतिग्रन्थ वे संकेत ग्रन्थ हैं जिनसे काव्य-रचना, व्याख्या और प्रदर्शन सम्भव होते थे और परखे भी जाते थे। संस्कृत पर आधारित इन ग्रन्थों में कवियों की मौलिक स्थापनाएँ छिपी हुई हैं। एक रीति बौद्धिक का प्रमुख उद्देश्य काव्य के सिद्धान्तों की देशभाषा में शिक्षा हुआ करता था। वहीं कुछ का मन्तव्य काव्य के सिद्धान्तों और उनके ग्रहण के मूल्यों का ‘अपनी मति अनुसार’ पुनर्गठन भी होता था। इसलिए अठारहवीं सदी तक आते-आते उत्तर भारत के लगभग हरेक राजा के भण्डार में एक रीतिग्रन्थ शामिल हुआ करता था।
रीति कवियों की विश्वदृष्टि में ‘कविकुल’ शब्द के प्रयोग को समझने की ज़रूरत है। कविकुल कवियों का, काव्य के सहृदयों का, कवि के परिवार में हुए कवि-बन्धुओं का आपसी ‘नेटवर्क’ था, जो छापेख़ाने की संस्कृति के आने से पहले पाण्डुलिपि परिवेश में सामुदायिक रूप से जुड़ा हुआ था। ब्रज कवियों के इस आत्मसजग समुदाय की चिन्ताओं में संस्कृत की काव्य-परम्परा तो थी ही, अपने समकालीन कवि भी थे जो क्लासिकल साहित्य के मानदण्डों को स्थानीय भाषा में रचने की सम्भावनाएँ तलाश कर रहे थे। ब्रजभाषा का कविकुल कैसे दरबारी हलक़ों से बाहर साहित्यिक चर्चा कर रहा था, सन् 1737 में ब्रज विद्वान सुरति मिश्र के निर्देशन में आगरा में हुई एक संगोष्ठी इसका सशक्त उदाहरण है। शिवदास अपनी रचना ‘सरससार’ में इस संगोष्ठी का जीवन्त ब्यौरा पेश करते हैं। यह संगोष्ठी साहित्यिक आदर्शों के ग्रहण पर आम सहमति बनाने पर ज़ोर देती है। यह साहित्य को परखने के तत्त्वों का गठन भी करती है और नये सिद्धान्त भी प्रस्तावित करती है। उस काल में ऐसी सभाएँ दूसरी भी होती रही होंगी, इससे इनकार नहीं किया जा सकता।
मुग़लकाल में जो समावेशी संस्कृति बनी, उसे न तो केवल फ़ारसी प्रस्तुत कर सकती थी न ही संस्कृत। ब्रज इन दोनों परम्पराओं के बीच स्थित थी जिसने फ़ारसी और संस्कृत दोनों से ही काव्य-शैली और शब्दावली अपनायी। एक महत्त्वपूर्ण बात जिसे ज़ोर देकर ऐलिसन बुश कहती हैं, वह यह कि फ़ारसी तज़किरे और तवारीख़ ब्रज के कवियों का संज्ञान न के बराबर लेते हैं। न ही फ़ारसी के ग्रन्थ मुग़ल साम्राज्य में राजपूतों का अपना दृष्टिकोण ही पेश करते हैं। इसलिए केवल फ़ारसी-स्रोतों को आधार बनाकर लिखा गया मुग़लकालीन इतिहास अधूरा है। ब्रजभाषा के ग्रन्थ इतिहास की उपज तो हैं ही, उनमें इतिहास भी दर्शाया गया है। अतः हर मुग़लकालीन भारत के अध्येता को रीतिकाव्य पर सोचना चाहिए।
ब्रजभाषा में इतिहास-लेखन ब्रज के अपने रासो-ग्रन्थों और चरितकाव्यों के रूप में प्रचलित होता है। इतिहास-लेखन की इस विधा में अर्द्ध-रिपोर्ताज व अर्द्ध-यथार्थवादी तत्त्वों को आलंकारिक भाषा में प्रस्तुत किया जा रहा था। संस्कृत परम्परा में इतिहास-लेखन के कुछ उदाहरण बाण, कल्हण और विल्हण हैं लेकिन वहाँ इस विधा को वह महत्त्व हासिल नहीं था जो ब्रजभाषा में मिला। केशवदास की तरह, मानसिंह के आमेर दरबार में अमृतराय और नरोत्तम कवि ऐसे ही इतिहासकार-कवि थे। लाल कवि का ‘छत्रप्रकाश’ छत्रसाल बुन्देला का इतिहास है, वहीं वृन्द के ग्रन्थ औरंगज़ेब और उनके बाद के काल का इतिहास प्रस्तुत करते हैं। मान कवि, चिन्तामणि, मतिराम, सूदन, महेशदास और पद्माकर के कुछ ग्रन्थ इतिहास-लेखन की कोटि में आयेंगे। भूषण के ग्रन्थ तथा श्रीधर का ‘जंगनामा’ राजनीतिक व्यंग्य के अद्भुत उदाहरण हैं। ब्रजभाषा मुग़ल-राजपूत समावेशी संस्कृति, राजपूत ‘आत्म-प्रस्तुतीकरण’ का माध्यम थी। वह प्रसंगानुकूल शैली और मिश्रित शब्दावली पर निर्भर रहती थी। संस्कृत या फ़ारसी की तरह इसका कोई ठोस व्याकरण नहीं था जिससे यह भाषा शब्द और शैली-भण्डार में विशाल होती गयी। मिर्ज़ा ख़ान का ‘तुहफ़त अल-हिन्द’ (सन् 1675), रतनजीत का ‘भाषा व्याकरण’ (सन् 1717) और भिखारीदास का ‘काव्यनिर्णय’ (सन् 1746) ब्रज को परिभाषित करने के कुछ अपवाद ज़रूर हैं।
बेनेडिक्ट एंडरसन ने नेशन को एक ‘परिकल्पित समुदाय’ माना है। उन्होंने इस समुदाय के बनने के पीछे प्रिंट संस्कृति, साक्षरता का विस्तार और राष्ट्रीय जुड़ावों को कारण माना है। लेकिन ब्रजभाषा का कविकुल इन कारणों के बिना भी एक साहित्यिक समुदाय का निर्माण कर रहा था।
Buy an annual Scroll Membership to support independent journalism and get special benefits.

Our journalism is for everyone. But you can get special privileges by buying an annual Scroll Membership. Sign up today!