रामचंद्र गुहा के किताब शताब्दी के झरोखे से: आधुनिक भारतीय इतिहास पर निबंध का एक अंश, अनुवाद आशुतोष भारद्वाज, पेंगुइन स्वदेशद्वारा प्रकाशित।
अख़बार का कॉलम, निबंध और किताब। यह तीनों भिन्न साहित्यिक विधाएँ हैं। इनका अपना विशिष्ट स्वर और संवेदना है, उद्देश्य भी भिन्न है, जो इनकी शब्द-सीमा और लक्षित प्रभाव से तय होता है। कॉलम छोटा है, तत्काल को संबोधित। किताब वृहद है, सिद्धांततः कालातीत है, अनेक युगों से संवाद करती है। इंटरनेट आने से पहले किसी कॉलम की उम्र सिर्फ़ चौबीस घंटे हुआ करती थी, उसके बाद अख़बार रद्दी के ढेर में मिल जाता था। जबकि किताब की सशक्त दैहिक उपस्थिति हुआ करती थी। वह एक दोस्त से दूसरे तक, शिक्षक से विद्यार्थी तक, माता-पिता से संतान तक पहुँचती थी। सौ बरस पहले प्रकाशित हुई किताब आज भी लाइब्रेरी में, कभी किसी पुरानी किताबों की दुकान में भी मिल सकती है।
आज इंटरनेट अख़बारी लेखों को भी जीवित रखता है, लेकिन बतौर लेखकीय कृति उनका जीवन क्षणभंगुर है। सिर्फ़ किताब बची रह जाएगी। इसलिए हंगेरियन-ब्रिटिश लेखक आर्थर कोसलर ने कभी कहा था कि वे आज सौ पाठकों के बदले दस साल में दस पाठक और सौ बरस में एक पाठक को चुनना चाहेंगे।
इनके बीच निबंध को बतौर साहित्यिक विधा कहाँ रखा जा सकता है? निबंध कॉलम की तरह मताग्रही नहीं होता, लेकिन यह किताब की तरह शोधपरक या संश्लिष्ट भी नहीं है। कॉलम के विपरीत निबंध में आपके पास किसी तर्क या विषय को कई हज़ार शब्दों में विकसित करने का समय और स्पेस है। यहाँ किताब-सा विस्तार या अनुशासन भी नहीं चाहिए। चूँकि अख़बारी कॉलम में आपको अपना तर्क सीधे और संक्षिप्त ढंग से रखना होता है, अकसर लेखकीय स्वर हावी हो जाता है। दूसरी तरफ़़, वस्तुनिष्ठता और गरिमा की खोज में डूबा अध्येता कर्म लेखकीय स्वर को पूरी तरह दबा सकता है। निबंध की भूमि पर आप बग़ैर अनौपचारिक हुए व्यक्तिगत हो सकते हैं। इसलिए इस विधा का एक विशिष्ट स्वरूप और ख़ास आकर्षण है।
साहित्य की विधा के रूप में निबंध का विकास यूरोप में आधुनिकता के जन्म के साथ हुआ था। फ़्रांस के मिशेल द मोंतेन और इंग्लैंडके विलियम हज़लिट शुरुआती महान निबंधकारों में थे। दोनों ने ही चिंतनपरक शैली अपनाई थी। बीसवीं सदी की महान निबंधकार वर्जिनिया वूल्फ़ने इसी शैली का निर्वाह किया था। जॉर्ज ऑर्वेल और हालिया क्रिस्टोफ़र हिचेंस जैसे निबंधकारों ने भी इस विधा को समृद्धकिया था।
किताब ख़्याल गायकी की तरह होती है। इसका विषय मद्धिम स्वर में पल्लवित और विकसित होता है। आरंभ में आलाप, फिर साधनारत विलंबित ताल और अंततः किसी ऊर्जावान द्रुत बंदिश पर समापन। अख़बारी कॉलम को आप फ़िल्मी गीत मान सकते है, पूरे दौरान एक-सी लय रहती है। निबंध ठुमरी की तरह है, जटिल लेकिन गंभीर नहीं, उल्लासित लेकिन चंचलता नहीं।
शास्त्रीय संगीत के जो रसिक देर तक रिसता हुआ ख़्याल सुनते हैं, उन्हें तीन मिनट में ख़त्म हो जाने वाले फ़िल्मी गीतों में कोई दिलचस्पी नहीं (कभी-कभी तो वे उनसे घनघोर नफ़रत करते हैं), लेकिन हो सकता है कि कभी ठुमरी उन्हें छू जाए, मुग्ध कर जाए, जो अवधि में गीत से लंबी, लेकिन गम्भीर ख़्याल से कहीं अधिक मिठास लिए रहतीहै। वहीं, फ़िल्मीसंगीत के भक्त जिनके पास ख़्याल सुनने का रियाज़ और धैर्य नहीं है, कभी ठहर कर ठुमरी को सुन सकते हैं। ठुमरी सौंदर्यशास्त्री रसिक को दो पायदान नीचे आने को सम्मोहित कर सकती है, कला-शून्य इंसान को समृद्ध करते हुए थोड़ा ऊपर उठा सकती है।
विचारशील व्यक्तिगत निबंध की शायद साहित्य में यही भूमिका है। यह उन अध्येताओं को लक्ष्य करता है, जो अपने दैनिक अध्ययन से थोड़ा कम गंभीर पढ़ना चाहते हैं और उन आम पाठकों को भी जो अपेक्षाकृत बेहतर लेखन से गुज़रना चाहते हैं। ठुमरी की तरह निबंध का अपना चरित्र और स्वभाव है। यह अकादमिक मोनोग्राफ़ का सरलीकृत रूप नहीं है, न अख़बारी कॉलम का विस्तार है। इसकी अपनी तकनीक, लय और प्रतिध्वनियाँ हैं।
निबंध संवेदना और मनोभाव द्वारा संचालित होता है। यह मौलिक शोध पर आधारित हो सकता है और एक विशिष्ट दृष्टिकोण पर केंद्रित भी, लेकिन इसका मुख्य उद्देश्य न तो शिक्षित करना है, न निर्दिष्ट करना, बल्कि किसी मनुष्य, मनोदशा, स्थल या घटना से जुड़ी अनुभूतिको जगाना है। इस तरह यह किताब या कॉलम से कहीं अधिक व्यक्तिगत है, लेखक का चरित्र कहीं गहरे तक उघाड़ देता है।
शास्त्रीय गायक को बोध है कि ख़्याल का उत्कृष्टतम निर्वाह उसकी कला और व्यक्तिगत उपलब्धि दोनों का उत्कर्ष है। इसलिए वह अपना गायन हमेशा ख़्याल से शुरु करता है, लेकिन दो रागों में ख़्याल गाने के बाद वह बड़े आनंद के साथ अपना गायन ख़त्म करने के लिए ठुमरी की तरफ़ मुड़ता है। किसी अध्येता के लिए निबंध भी लगभग यही काम करता है। निबंध उन तमाम आवेगों को उल्लासमय मुक्ति दिलाता है, जो अनगिनत फ़ुटनोट से भरी, बड़ी निष्ठासे विवेचित की गईं और बरसों के शोध से जन्मी किताबों को लिखने की प्रक्रिया में अव्यक्त रह गए थे।
इस संकलन के कुछ निबंधों में मैंने महत्त्वपूर्ण राजनैतिक घटनाओं के उद्गम और परिणाम पर बतौर इतिहासकार चिंतन किया था, मसलन इंदिरा गांधी और इमरजेंसी पर निबंध, जो इमरजेंसी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर जून 2000 में प्रकाशित हुआ था। कुछ निबंध हाल ही दिवंगत हुए लोगों पर मेरे व्यक्तिगत संस्मरण थे, मसलन धर्माकुमार। कुछ धर्मानंद कोसांबी और शिवराम कारंथ जैसी हस्तियों पर, जिनके लिए मुझे लगता था कि पाठक को उनके बारे में कहीं गहराई से जानना चाहिए। कुछ अन्य एक यात्री के संस्मरण थे, जहाँ वह हाल ही गया था, मसलन सेवाग्राम पर निबंध।
इंसान, राजनीति और भूगोल – यह इन निबंधों के तीन प्रमुख विषय हैं, जो गाँधी और बनारस पर निबंध की तरह कभी एक-दूसरे में समाहित भी हो जाते हैं। यह निबंध किसी इंसान की किसी भूगोल को संबोधित राजनीति पर आधारित है (दरअसल, एक विशिष्ट इंसान की एक विशिष्ट जगह पर विशिष्ट राजनीति)।
एक इतिहास, जो राजनैतिक विचारक गढ़ते हैं, एक जिसे कलाकार और उपन्यासकार दर्ज करते हैं। इस संग्रह के निबंध जिन इतिहासकार ने लिखे हैं, उनके पास औपन्यासिक निगाह और संवेदना के साथ शिल्प और आख्यान भी है। उनके गद्य के भीतर आँच के साथ मज्जा भी है। गहरी रचनात्मकता और गहन अनुभूति में डूबा उनका आख्यान कुछ इस तरह मोड़ लेता हुआ आगे बढ़ता है कि रामचंद्र गुहा किसी कथावाचक की पीठ से इतिहास सुनाते प्रतीत होते हैं। उनके प्रिय शीर्षक को थोड़ा फेर कर कहें तो वे ‘इतिहासकारों के बीच स्थित उपन्यासकार’ हैं।
चाहे धर्मानंद कौशांबी की कथा में भारतीय धर्मों के अध्येता पद्मनाभ जैनी का एक मार्मिक संदर्भ हो, धर्मा कुमार की जीवनी में इंद्र कुमार गुजराल का चुपचाप पिरो दिया गया उल्लेख या अपनी प्रतिबद्धताओं और विरोधाभासों के साथ जीवंत हुए धर्मपाल— गुहा अपने किरदारों को डूबकर रचते हैं और उनकी शक्तियों और ख़ामियों को बारीकी से उजागर करते हैं। उनके भीतर बैठे कथाकार को बोध है कि चाँदनी का सबसे सुं दर वर्णन आकाश या उसकी सफ़ेद डिस्क को चित्रित करके नहीं ,बल्कि किसी हरी काँच की बोतल पर गिरते चाँदी के प्रतिबिंब द्वारा हासिल होता है।
मसलन, आपातकाल के दौरान संजय गांधी को खुशवंत सिंह के समर्थन पर उनका निबंध। यह निबंध इटली के बेलाजियो सेंटर में खुशवंत सिंह के प्रवास पर एक रोचक प्रसंग से शुरू होता है। स्थानीय इतालवी समाज द्वारा भारतीय मेहमान के लिए रची गई एक अद्भुत स्मृति को सुनाता यह प्रसंग इस राजनैतिक निबंध से नितांत असंबद्ध प्रतीत हो सकता है। यह खुशवंत सिंह के व्यक्तित्व में कोई नया पहलू भी नहीं जोड़ता, क्योंकि वे यहाँ मात्र छाया-चरित्र की तरह उभरते हैं, लेकिन जैसे ही पाठक अगले खंड की ओर मुड़ता है, एक झटके से दृश्य बदल जाता है और पाठक निबंधकार की कला का मुरीद हो जाता है। निबंधकार को एहसास है कि कोई बिसरी हुई घटना वर्तमान को कितनी नफ़ासत से आलोकित कर सकती है।
गुहा ने समकालीन भारत को अपने शोध का क्षेत्र चुना है। यह युग उस भीषण राजनैतिक झंझावात से गुज़र रहा है, जिसके अधिकांश भारतीय प्रत्यक्षदर्शी हैं। किसी उपन्यासकार के सामने एक चिरंतन प्रश्न यह होता है कि समकालीन राजनीति को किस रचनात्मकता के साथ दर्ज किया जाए। क्या तात्कालिकता कलात्मक अभिव्यक्ति को प्रभावित करती है? क्या दैनिक राजनीति को किसी अंतराल के साथ ही दर्ज किया जा सकता है?
क्या वर्तमान इतिहासकार भी इन्हीं प्रश्नों से जूझता है? जब तमाम अभिलेखागार आपके माउस के क्लिक पर उपस्थित हैं, समकालीन इतिहास को कैसे लिखा जाए? स्वातंत्र्योत्तर राजनीति पर समाज विज्ञान और इतिहास की कई हालिया किताबें मीडिया ख़बरों की पुनरावृत्ति प्रतीत होती हैं या किसी सुनी-सुनाई कथा को परोसती हैं। गुहा अपने समकालीन इतिहासकारों के बीच अलग नज़र आते हैं, क्योंकि वे अपने विषय को कथा की तरह बरतते हैं। वह गुण, जो अभिलेखागार में बरसों बिता चुके गुहा को अन्य इतिहासकारों से अलग करता है, वह उनके विषयों की आश्चर्यजनक विविधता मात्र नहीं है। महात्मागांधी की विराट जीवनी लिखने से बहुत पहले उन्होंने वेरियर एल्विन की सृष्टि को लिख दिया था और भारतीय क्रिकेट के सामाजिक इतिहास पर शोध करने से पहले उन्होंने पर्यावरण पर एक किताब का सह-लेखन कर दिया था। वह गुण है, उनका अपने किरदारों और घटनाओं के साथ जटिल और आत्मीय संवाद।
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