किंशुक गुप्ता के किताब ये दिल है कि चोर दरवाज़ा का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
उसकी अँगुलियों के पोरों का दबाव जैसे एक कोमल किसलय पर टिकी ओस की बूँद। उसकी छुअन जैसे तेज़ हवाओं का बाँस के मोटे तनों से टकराना, एक मदमाते स्वर का पनपना और सब दिशाओं में गूँजना। उसकी देह जैसे पूस की रात में दूर जलता अलाव।
बिस्तर पर लेटे, हम दोनों निस्तब्ध मौन को महसूसते, एक-दूसरे के बालों में अँगुलियाँ फिराते, तेज़ रफ़्तार से धड़कती घड़ी के दिल की टिक-टिक सुनते – जैसे नदी के तेज़ बहाव के बीच पड़े दो पत्थर। इच्छाएँ जैसे गर्म रेत के सूखे कण, हवा में गोल-गोल चक्कर लगाते, बवण्डर में घुलते, खोजते पानी की ठण्डी नीली सतह। वो तैर जाना चाहता था मुझमें, मेरे शरीर की गोते खाती, नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण नदी में, पर मैं उसके आगे बढ़ना नहीं चाहता था। उसने कोशिश की, अपने हाथों का दबाव मेरी जाँघों पर बढ़ाया, पर मुझे दिखाई देने लगीं लाल दहकती आँखें, महसूस हुआ शरीर में भरता एक निर्लिप्ति का भाव, जैसे दूर छूटता नदी का तट।
“क्या हुआ, अवधेश?” उसकी आवाज़ बगुले के परों की तरह फड़फड़ाती हुई आई।
“कुछ भी तो नहीं, नींद आ रही है।” डर का एक ख़ंजर मेरे कलेजे में बेरहमी से घुँप गया। गला आँसुओं से रुँध गया। मैंने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया।
“बताओ तो?” उसकी आवाज़ में छटपटाहट ख़त्म हो चुकी थी, उसने मेरी छाती पर अपना सिर रख लिया और तर्जनी के इशारे से चाँद दिखाने लगा, “बादलों के बीच ढका चाँद कितना सुंदर लग रहा है... शायद आज पूर्णिमा है।”
“वो देखो, वहाँ से अभी अधूरा है। दो-तीन दिन में होगी पूर्णिमा।” मैंने इशारे से उसे दिखाया।
“तुम्हें तो हर चीज़ में नुक्स निकालने की गंदी आदत है। बाय द वे, दिल इज सच अ हेटेरोनॉर्मेटिव वे। दैट होल इज़ ओनली ब्यूटीफुल!” “मैंने कब कहा अधूरी चीज़ें सुंदर नहीं होतीं? बल्कि अधूरापन तो ज़्यादा आकर्षित करता है।”
“ज़ायगार्निक इफ़ेक्ट!”
“फिर भी पूरा मेरे लिए अधिक सुंदर है। एक भौंडे चेहरे वाले कृष्ण, दूसरे तीखे नैन-नक्श वाले—तुम बताओ किसके सामने तुरंत सिर झुका लोगे?”
“...दोनों के सामने।”
“लेकिन वो तो श्रद्धा के कारण। ये जो दीवार पर तुमने गोरे, घुँघराले बालों वाले बुद्ध बनाए हैं, क्या तुम्हें लगता है ये असली बुद्ध से ज़रा भी मेल खाते होंगे?”
“वो सब छोड़ो...कल क्यों तुम उठकर अचानक चाचा-चाचा चिल्लाने लगे थे... फिर घूँ–घूँ कर रोने लगे थे।”
“क्या...तुमने बताया क्यों नहीं?” मैं एकदम शर्मिंदा। मैंने अपनी आवाज़ कड़ी कर उसका सिर छाती से हटाया और उसकी ओर पीठ करके मैंने आँखें मींच लीं, “रात बहुत हो गई है, अब तुम भी सो जाओ।”
प्लेट गिरने की छनछनाहट से मेरी नींद खुली। बल्ब की तीखी रौशनी से आँखें मिच गईं। पाँच बजे थे। आसमान में रात घिरी हुई थी। कोहरे की गाढ़ी परत एक रजाई-सी पूरे शहर को ढके हुए थी। सुशांत अपनी पेंटिंग पर आढ़े-तिरछे स्ट्रोक्स मारने में मशग़ूल था।
“फिर इतनी जल्दी उठ गए... तुम सोते भी हो या नहीं?” मैंने हथेलियों से अपना सिर दबाते हुए पूछा।
“ये पेंटिंग हमारे विरोध का चिह्न है, इसलिए जल्दी पूरी करनी है।”
“एक सूरज बनाए जा रहे हो दस दिनों से। कभी पीला भरते हो, फिर एक लाल का छींटा मारते हो, फिर कहते हो ज़्यादा डार्क हो गया, रंग हल्का करने के लिए फिर पीला...अजीब सनकी हो।”
“सनकी तो सनकी सही, लेकिन पेंटिंग बनाना कोई बच्चों का काम नहीं। बड़ा पेशेंस चाहिए होता है।” फिर लाल रंग में अपनी कूची डुबाकर उसने जोड़ा, “समय इसलिए भी बहुत लग रहा है कि सामान पूरा नहीं है। दो दिन से नारंगी रंग की ट्यूब ख़त्म हो गई है। लाल और पीला मिलाकर काम तो कर रहा हूँ, पर पीला रंग भी बहुत कम बचा है। बचा-बचाकर डालो तो वो बात नहीं आती।”
“बाज़ार जाने में इतना भी क्या आलस?”
“आलस नहीं...”
“पेंटिंग वैसे ही अमीरों का शौक़ है...ऊपर से यह बम्बई शहर। कैनवास की जगह प्लाई बोर्ड इस्तेमाल करते हो, घिसे हुए ब्रशों को और-और घिसते जाते हो...ऊपर से मेरी नींद बिगाड़ते हो। शाम को घर का सामान भी लाना है, साथ चलना।”
“तुम्हें पता तो है मैं तुम्हारी नींद ख़राब नहीं करना चाहता...गिल्टी क्यों फ़ील करवा रहे हो?”
“गिल्टी क्या, इस दड़बे में कुछ भी करोगे, जितने भी आराम से, आवाज़ तो होगी ही।”
मैं सुड़क-सुड़क कर अपनी चाय पीने लगा तो उसने आँखें तरेरीं। हल्की-सी फुसफुसाहट से भी उसका कॉन्सेंट्रेशन जाता है, मैं जानता हूँ, लेकिन अगर मैं चाय सिप्स में न पियूँ तो लगता ही नहीं कि पी है। कहने को यह घर है, पर असलियत में तो यह केवल एक कमरा है जिसमें एक डबल बेड किसी तरह ठूँस दिया गया है। एक कोने में गैस स्टोव रखा है और दूसरे में बदबूदार ग़ुसलखाना बना है। कभी लगता है, आदमियों की तरह इस शहर ने भी मुखौटा पहन रखा है, यह भी तस्वीरों में अपने हाथी दाँत दिखाता है—फटी-फटी आँखों से देखे गूगल पर जुहू-चौपाटी के पत्थरों पर बैठे हाथों में हाथ डाले भुट्टा खाते कपल्स, गेटवे ऑफ़ इंडिया के सामने सेल्फ़ी लेते प्रेमी जोड़े, आलीशान जलसा की छत पर हाथ हिलाते बिग-बी—शहर में क़दम रखते ही सभी चित्र बेमानी लगने लगते हैं।
मैंने चुपचाप एक घूँट में चाय पी और सिर को हाथों से दबाता हुआ कम्बल ओढ़कर फिर लेट गया। सोचा था कि आधे घंटे में उठकर उसका नाश्ता बना दूँगा, पर नींद आ गई। जब उठा तो साढ़े सात बज रहे थे। मैं तुरंत उठकर रसोई में गया। आलू के पराँठे बनाने के लिए तवा रखा ही था कि वह तैयार होकर जाने लगा।
“तुमने उठाया क्यों नहीं...पता नहीं कैसे आँख लग गई...दस मिनट रुक जाओ। मैं अभी कुछ बना देता हूँ।”
उसने कोई जवाब नहीं दिया। शिराओं में कोई तनाव नहीं, बस एक विद्रूप हँसी उसके होठों पर फैल गई और हर रोज़ के बजाए उसने और कसकर मुझे गले लगाया।
“आज तो गैलरी ही जा रहे हो न?”
“नहीं...”
“क्यों?"
“तुम्हें क्या मतलब?"
“मुझे क्यों नहीं मतलब...इतनी छुट्टियाँ लोगे, तो वो निकाल नहीं देंगे?”
“तुम ख़ुद तो चूहे की तरह बिल में छिपे रहना चाहते हो, मैं भी अपनी कम्युनिटी के लिए लड़ना छोड़ दूँ?” उसने चीख़ते हुए कहा। “थोड़ा धीरे बोलो। एक ही बात के पीछे क्यों पड़ गए हो?”
“इंसाफ़ के लिए लड़ना पड़ता है, बातें बनाने से कुछ नहीं होता।” “उस ट्रांसजेंडर एक्टिविस्ट के साथ जो हुआ, मैं बिल्कुल उसके ख़िलाफ़ हूँ। लेकिन लफ़्फ़ाड़ेबाजी तभी तक अच्छी लगती है जब पेट भरा हुआ हो। तुम दो-चार सौ लोग मिलकर क्या उखाड़ लोगे?” “तुम जैसे लोगों को फ़ायदे सारे चाहिए, सबसे पहले तुम ही 'गे प्राइड' के पोस्टर्स लगा लेते हो स्टेटस पर... कम्युनिटी पर पेस्ट हो तुम।” “ज़ोर-ज़ोर से न चिल्लाने से यह बिल्कुल साबित नहीं होता कि मैं उस एक्टिविस्ट को इंसाफ़ नहीं दिलाना चाहता हूँ।”
“चिल्लाए बिना, बहरा समाज कुछ नहीं सुनता।”
“एक भी दोस्त का नाम बताओ अपनी ‘सो-कॉल्ड कम्युनिटी’ से जो हमें दस दिन भी मुफ़्त में अपने पास रख लेगा? मैं तब तक नहीं भागा...आ...आ...बस यही कह रहा हूँ कि जोश में होश मत खोओ।” मैं उसकी आँखों-में-आँखें डाल एक साँस में बोलता गया था।
मुझे लगा था कि वो रुक जाएगा, समझेगा आर्ट गैलरी में जाना कितना ज़रूरी है। वैसे भी वहाँ से पाँच बजे तक फ़्री हो ही जाता है, उसके बाद भी तो प्रदर्शन में सम्मिलित हुआ जा सकता है। मैं गले लगाने के लिए थोड़ा आगे हुआ भी, पर वह दूर हट गया। फिर दरवाज़ा भाड़ से मारता हुआ चला गया।
महीना ही हुआ था मुझे सुशांत से मिले, ग्राइंडर का भी जोडूँ तो छह महीने। कितनी जल्दी लगने लगा कि हम कितने अलग हैं, जैसे विंडचाइम की दो घंटियाँ, जो साथ में रहती हैं, हवा के झोंकों से हुलसी एक साथ मिलकर मधुर ध्वनि पैदा करती हैं, पर दोनों बिल्कुल अलग – उनके आकार, ध्वनि, पिच – सब कुछ बिल्कुल अलग। क्या भिन्नता का यही चुम्बक हमें क़रीब ले आया था?
मैं छज्जे पर खड़ा होकर देखने लगा ऊपर फैला साफ़-शफ़्फ़ाक़ आकाश, चौकीदारों की तरह तैनात बिजली के लम्बे खम्बे, उनसे गुज़रतीं मकड़ी के जाले बुनतीं मोटी काली तारें, बीच में एक मक्खी की तरह उलझा सुबह का लाल, लपटदार सूरज। मेरी नज़रें टिकी रहीं सामने के डंपिंग ग्राउंड पर – रंग-बिरंगे बिस्कुट-भुजिया के पैकेट, अंडे- केले के छिलके, प्लास्टिक के टूटे ढक्कन। उन पर भिनकती मक्खियाँ, चरते गाय-डंगर, झोला उठाए घूमते बच्चे जो एक-दूसरे से मुक़ाबला करते हैं ज़्यादा सिक्के, प्लास्टिक और पीतल ढूँढ़ने का। जब थक जाते हैं, तो लड़कियाँ खोजती हैं ख़ून से सने सैनिटरी पैड, जिन्हें वे देखती हैं हसरत भरी निगाहों से, लड़के भी ढूँढ़ते हैं कॉन्डम, उन पर अँगुलियाँ फिराते महसूस करते हैं अपने अंदर पनपते पुरुष को। ऐसा ही बच्चा मैं भी हो सकता था – बिना किसी भविष्य वाला – अगर मैं वहाँ से नहीं भागता।
फिर सोचने लगा, भविष्य की फाँस न होना कितनी अच्छी बात है। हर रोज़ बस एक दिन हाथ में होना, एक ऐसी स्वच्छन्दता जो चाहकर भी हमारे हिस्से में नहीं। इतने बड़े शहर में जहाँ हमें कोई नहीं जानता, कोई नहीं पहचानता, वहाँ भी हम कितना डरकर रहते हैं।
पहली तनख़्वाह मिली तो पर्देख़रीद कर लाए – मोटे, काले पर्दे। इतने मोटे कि रौशनी के सतरें भी आर-पार न होने पाएँ।
आँखें अभ्यस्त हो सकती हैं अँधेरे के लिए, पर शरीर सच की मार कैसे सहन करेगा? कभी रविवार को हम दोनों घर पर होते हैं, तो बिना रौशनी के यह कमरा घर से ज़्यादा बिल लगता है – हम दो चपल चूहों के छिपने की खोह कभी लगती सेल्यूलर जेल की दस जमा छह की कोठरी, जिसमें हम न जाने कौन से जुर्म की सज़ा काट रहे हैं।
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