गौतम चौबे के उपन्यास चक्का जाम का एक अंश, राधाकृष्ण प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
उस दिन की तरह आज पटना में भी भाषणों का सिलसिला लगने वाला था। यहाँ भी नारेबाज़ी होने वाली थी। बस एक अन्तर था। उस दिन भद्रा में जगह वही पुरानी थी, बस पुराने लोग ग़ायब थे। और आज दोस्त पुराना था, पर जगह नई थी।
अशोक राजपथ के सामने चौराहे पर कविता-पाठ चल रहा था। कविताएँ क्रान्ति की, युवा उत्साह की, और कुछ तीखी, व्यंग्य से लबरेज़। रोड के किनारे पंक्तिबद्ध कुछ कवि सुस्ता रहे थे, हाथ में किताबें और पर्चे पकड़े, अपनी बारी के इन्तज़ार में। वहीं पास एक जामुन के पेड़ की छाँव में कुछ युवा श्रोता भी बैठे थे। उनमें तीन-चार लड़कियाँ भी थीं। वे कभी सर हिलाकर वाह-वाह करते, तो कभी तालियाँ बजाते। तभी गुलाबी छींटदार साड़ी पहने एक युवती आगे बढ़ी।
“देख रहे हो? महिला कॉलेज की कुमारी रीटा है। ऑल इंडिया फ़ेमस। इनको तो पास जाकर देखना ही पड़ेगा।” नेपाल ने कुटिल मुस्कान के
साथ कहा।
“मतलब सुनना पड़ेगा?”
“तुम सुन लेना, तुम्हारा बियाह-सादी हो गया है। तुम सिया-राम भजो। हम तो ताड़ेंगे,” कहकर नेपाल मुँह दबाकर हँसने लगा।
तीखे नयन-नक़्श वाली कुमारी रीटा ने सबको नमस्कार किया, अपनी साड़ी का पल्लू कमर में खोंसा और फिर एक डायरी खोलकर कविता-पाठ शुरू किया—
मुर्ग़ी जो खा रहा है, सो है वो भी आदमी,
दलिया पका रहा है, सो है वो भी आदमी,
नारे लगा रहा है, सो है वो भी आदमी,
चन्दा जो खा रहा है, सो है वो भी आदमी
मजीद लाहौरी की वह नज़्म देव को कुछ जानी-पहचानी-सी लगी। “अरे नेपाल, ई वाला पोयमवा तो प्रकाश पंडित वाला कितबवा में भी था। याद आया?” अतीत की उस परिचित आहट से देव की आँखें चमक उठीं। पर नेपाल ने सिर्फ़ मुस्कराकर सर हिलाया और बस-कंडक्टर की तरह हाथ नचाकर चलते रहने का संकेत दिया। अभी उसी ने तो रीटा को ‘ताड़ने’ की बात कही थी। वहाँ रुककर कविता सुनने का मन बनाया था। क्या वह इतनी जल्दी ऊब गया? कविता के प्रति ऐसी उदासीनता? देव हैरान था।
एक बार गाँव में कहानीकारों और कवियों के गुणों पर बहस छिड़ी थी। देव का कहना था कि हिन्दी के कहानीकारों का शिल्प कवियों से कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण था।
“गुलशन नन्दा जैसे उपन्यासकार नहीं होते तो ‘काजल’ जैसा फिल्म बनता?”
लेकिन नेपाल कवियों को उत्कृष्ट मानता था। “अगर साहिर और नीरज सदाबहार गीत नहीं लिखेंगे तो आपका देवानन्द हेरोईनी के साथ कमर लचका लेगा?”
न जाने क्या वजह थी—अगस्त की उमस भरी गर्मी या बाढ़ में सड़ते फ़सलों पर झुँझलाहट—विवाद बढ़ता गया और दोनों ने महीने भर आपस में बात नहीं की। न देव ने नेपाल को हरीश की नई चिट्ठी पढ़कर सुनाई, और न नेपाल ने देव को मछली-लिट्टी पर आमंत्रित किया। पूरा फ़साद सिर्फ़ कहानी-कविता को लेकर!
और आज? कितना बदल चुका था ये पटना वाला लाल नेपाल। इसे न कविता में रुचि थी, न कुमारी रीटा में। उपन्यास की ख़ून से सींची पांडुलिपि भी वह जला चुका था। पुराने नेपाल में जो ठहराव था, जो ज़िद्द थी, वह पटना की धूप में भाप बन चुका था। उसकी बातों और योजनाओं में एक बनावटी उत्साह था, जो उसके मन में बसे निराशा को छिपाने के लिए काफ़ी नहीं था। वह बहुत कुछ कहता-करता, पर सब कुछ बस यूँ ही। समय काटने के इरादे से। वर्तमान को टालने की नीयत से। नेपाल को यूँ बिखरते देख देव बेचैन हो उठा। कहीं उसका ये नैराश्य देव की भी नियति तो नहीं?
“अरे इनको छोड़िए देव बाबू। लड़की देखना है तो सीधा गांधी मैदान चलते हैं। वहीं चाय भी पीएँगे।”
“अभी तक चाय पीना शुरू नहीं किये हैं,” देव ने लजाते हुए कहा।
“अच्छा? तो थोड़ा सौन्दर्य का रसपान कर लीजिएगा। वहाँ सुन्दरी लोग का मेला लगा है। भौजाई को नहीं बताएँगे।”
पर मेला तो पूरे शहर में लगा था। कविता, गीत, नाटक, भाषण—हर ओर समय काटने का उत्तम प्रबन्ध। कर्फ़्यू के बावजूद सड़कें ठचाठच। लाउडस्पीकर की तेज़ आवाज़ में एक उज्ज्वल भविष्य का सपना गढ़ते छात्र।
सड़क के दोनों ओर विशालकाय फ़िल्मी होर्डिंग खड़े थे। नेपाल ने देव को कन्धे से पकड़ा और उनकी तरफ़ इशारा करते हुए बोला, “देख रहे हो? पटना का नेता सब ही नहीं, सिनेमाघर भी चालू है। शहर का इंकलाबी मिजाज भाँप लिया है—अप्सरा में दिलीप कुमार का ‘आजाद’ लगा है, रीजेंट में ‘आरोप’ चल रहा है, तो पर्ल में वहीदा रहमान का ‘इंसाफ’। ले बवाल! सिर्फ वीना टॉकीज में ‘बॉबी’ लगा है। रोमांस से भरपूर। हमको उसी स्वप्नलोक में चलना है।”
रेलवे के साथ अपने एक साल के कार्यकाल में देव ने दर्जन-भर हड़तालें और दस-बीस जनसभाएँ ज़रूर देखी थीं। भद्रा की जनसभा में तो शामिल भी हुआ था। चैटर्जी बाबू से हड़तालों के क़िस्से सुने थे। लेकिन पटना की आक्रोशित ऊर्जा कुछ अलग ही थी।
दोनों कुछ और आगे बढ़े। एक कॉलेज के सामने तीस-चालीस छात्र जुटे थे। उत्तेजित। एक पहलवान-से व्यक्ति को घेरे खड़े, ध्यानपूर्वक उसकी बातें सुनते।
“ई तो पवनवा है। सालभर पहले ही फेल होकर घर लौट गया था।” नेपाल ने उसे तुरन्त पहचान लिया।
पवन बेतिया का रहने वाला था। दो शाम पहले ही वहाँ छात्र-रैली के दौरान भयंकर उपद्रव मचा था। ज़िला कलेक्टेरियट पर गोलियाँ चली थीं। कुछ लोग मारे भी गए थे। अब शहर में कर्फ़्यू लगा था और उपद्रवियों की धर-पकड़ चालू थी। ताकि कोई भाग न सके, पटना की ओर आने वाली ज़्यादातर ट्रेनें बन्द थीं। पवन एक बाराती बस में छिपकर आया था और अब पूरे घटनाक्रम का आँखों-देखा हाल सुना रहा था। कौतूहलवश नेपाल और देव भी जाकर उन छात्रों के पीछे खड़े हो गए।
“सामने हजारों की भीड़ थी और समाहरणालय में मात्र आठ-दस ठो जवान। वो लोग लाठी भाँजकर चेतावनी दे रहा था। लेकिन छात्र इतना आसानी से डरने वाला प्राणी है जी? हम लोग डटकर नारा लगाते गेट तक पहुँचे—‘बिहार भी गुजरात बनेगा—चम्पारन शुरुआत करेगा।’ लेकिन अब सिपहिया सब थोड़ा घबरा गया। समझे? डंडा छोड़कर राइफल उठाया और खदेड़ने लगा। इस पर भीड़ थोड़ा पीछे सरकी, लेकिन दो मिनट में फिर आगे। पन्द्रह-बीस मिनट तक यही कबड्डी चलता रहा—तभी इधर से पत्थरबाजी स्टाट हो गया। और उधर से गोली। कइसा डेंजरस सीन था!”
“सुने दुकान में चोरी-चकारी भी हुआ है?” भीड़ में से किसी ने पूछा।
“सोवा बाबू चौक पर महाराजा होटल का शटर टूटा और पूरा भीड़ जलपान कर ठंडा गया। पेड़ा, रसगुल्ला, कोका कोला—दस मिनट में साफ। फिर ‘अरोड़ा शू हाउस’ का ताला टूटा। वहाँ एक-से-एक चमड़ा का सामान था,” अपने पाँव में पड़े जूतों की ओर इशारा करते हुए पवन मुस्कराया।
इस पर नेपाल ने देव की पीठ पर हाथ मारा और धीरे से उसके कान में फुसफुसाया, “आज कहीं पटना में कोई कपड़ा-दुकान का शटर टूटा तो आन्दोलन में कूद लेना है। ढेर दिन से हमको ग्वालियर शूटिंग पहनने का इच्छा है। राजेश खन्ना भी वही पहनता है। आज देखिए लेंगे, कितना लकी है तुम्हारा दोस्त।”
‘लक’ पर आश्रित जीवन-दर्शन से देव परिचित था। नेपाल जिसे ‘लक’ कहता था, पिता जी उसे संयोग मानते थे—“संयोग बनते जाते हैं, जीवन बढ़ता जाता है।” पिता जी की जीवनगाथा ‘कारण और परिणाम’ की शृंखला से नहीं, बल्कि संयोग के तर्क से रची थी। सम्भव है उनकी कहानी की शुरुआत भी किसी कारण से हुई हो; कोई ऐसा निर्णय, कमजोरी या कोई ऐसी घटना जिसने उनके जीवन को किसी ख़ास दिशा में ढकेल दिया। लेकिन समय के साथ व्यक्ति उस मूल कारण को भूल जाता है और याद रह जाते हैं सिर्फ़ संयोग।
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