हरिनारायण ठाकुर के किताब कर्पूरी ठाकुर : जननायक से भारत रत्न तक का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
कर्पूरी ठाकुर का जन्म अति पिछड़े समाज में ज़रूर हुआ था, पर क्या वे केवल पिछड़े या अति पिछड़े वर्ग के ही नेता थे? प्रश्न पूछा जा सकता है। एक बार पत्रकारों ने भी कर्पूरी जी से यही सवाल पूछा था, जब वे दूसरी बार मुख्यमन्त्री बनने के बाद फिर से राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय थे। पत्रकारों ने पूछा था–“आप पिछड़ी जाति के नेता हैं और आप जाति की राजनीति करते आये हैं, यह बात कहाँ तक सही है?” कर्पूरी ठाकुर ने छूटते ही कहा था–“यह कहना सरासर ग़लत होगा कि मैं किसी जाति विशेष का नेता हूँ या जाति पर आधारित राजनीति करता आया हूँ। मैं तो आज़ादी की लड़ाई का सिपाही था। आज भी सामाजिक और आर्थिक आज़ादी की लड़ाई में एक सिपाही के रूप में संघर्ष कर रहा हूँ।” पत्रकार–“आप पर आरोप लगाया जाता है कि आपने अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में ऐसी आरक्षण नीति तैयार की, जिससे जातीयता को और बढ़ावा मिला, विभिन्न् जातियों में टकराव पैदा हुआ। ऐसा करने के पीछे आपका उद्देश्य राजनीतिक लाभ उठाना था। यह बात कहाँ तक सच है।” कर्पूरी ठाकुर–“मैंने केवल संविधान में लिखे निर्देशों का पालन किया था। संयुक्त समाजवादी पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी तथा तत्कालीन जनता पार्टी की यह नीति थी कि हरिजनों, आदिवासियों, पिछड़े वर्गों, महिलाओं एवं पिछड़े मुसलमानों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण की व्यवस्था की जाये। संविधान के अनुच्छेद 15 (क) और 16 (4) में भी प्रावधान है कि सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े लोगों को आरक्षण प्रदान किया जाये। मैंने संविधान के निर्देशों और अपने चुनाव घोषणा-पत्र का अनुपालन और कार्यान्वयन किया, तो क्या ग़लत किया? वास्तव में यह उदार नीति थी, इसे पिछड़ापन न कहक़र न्यायवाद कहना चाहिए।” (ग़रीबों का हमदर्द : जननायक कर्पूरी ठाकुर, ले.–गणेश प्रसाद, पृष्ठ 99)
सचमुच कर्पूरी जी ने सभी जाति और धर्म के लोगों के लिए काम किया। उनके आन्दोलनकारी साथियों में जितने हिन्दू नेता थे, उतने ही मुसलमान भी, जितने सवर्ण नेता थे, उतने अवर्ण भी। उन्होंने जाति और धर्म की राजनीति कभी नहीं की। इसके दो कारण थे-– एक आज़ादी के बाद देश में जाति, धर्म और वर्ण-व्यवस्था को लेकर जो नये सामाजिक मूल्य उत्पन्न हुए थे, उसमें जाति-प्रथा और छुआछूत को सिद्धान्त रूप में मान्यता प्राप्त नहीं थी। छुआछूत अपराध घोषित कर दिया गया था और नयी पीढ़ी के लोगों में जातिप्रथा के प्रति एक अपराधबोध-सा उत्पन्न हो रहा था। सार्वजनिक तौर पर जाति पूछना अनैतिक माना जाने लगा था, जो आज भी है। धार्मिक दृष्टि से भी कोई भेद-भाव नहीं था। लोग सर्वधर्म समभाव रखते थे। वोट के लिए कुछ नेता जाति-धर्म की राजनीति करते थे, लेकिन जनता उन्हें पसन्द नहीं करती थी। यद्यपि व्यावहारिक तौर पर राजनीति या समाज में जो लोग आगे थे, अपने जाति-धर्म के लोगों को ही बढ़ावा दे रहे थे, फिर भी कर्पूरी ठाकुर जैसे बड़े नेताओं में सामाजिक व्यवस्था के प्रति मूल्यबोध का यही आदर्श काम कर रहा था।
दूसरा कारण था कर्पूरी जी स्वतन्त्रता संग्राम की उपज थे और स्वतन्त्रता संग्राम का आधार कतिपय अपवादों को छोड़कर जातीय नहीं, राष्ट्रीय था। कर्पूरी जी ने कभी कोई जातीय सम्मेलन नहीं किया और न किसी जातीय महासभा में भाग लिया। 60 के दशक के किसी वर्ष की एक घटना है, जब वे चर्चित नेता बन गये थे। उनके चुनाव क्षेत्र ताजपुर के शाहपुर पटोरी में नाइयों की एक विशाल प्रान्तीय सभा हुई, जिसमें कर्पूरी ठाकुर को मुख्य अतिथि के रूप में आमन्त्रित किया गया था। उन्होंने साफ़ इनकार कर दिया कि किसी जातीय सम्मेलन में वे नहीं जायेंगे। उनके मुख्यमन्त्री और उपमुख्यमन्त्री रहते हुए कई बार उनके सगे-सम्बन्धी और ग़रीब कामगार वर्ग के लोग उनसे नौकरी माँगने आये। किन्तु हर बार उन्होंने सरकारी नियम-क़ानून का हवाला देते हुए उन्हें प्रतियोगिता परीक्षा में बैठने और अपना पुश्तैनी पेशा करके रोज़ी-रोटी कमाने की प्रेरणा दी। कई बार इसके लिए उन्होंने अपनी जेब से ऐसे लोगों की आर्थिक मदद भी की।
‘सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह’ गांधी जी का नारा था और ‘आराम हराम है’ नेहरू का। कर्पूरी जी का नारा था–‘कमानेवाला खायेगा, लूटनेवाला जायेगा।’ वे कर्मयोद्धा थे। वे आलस्य के दुश्मन और जागरण के सन्देशवाहक़ थे। अक्सर अपने भाषणों में कहा करते थे–“उठ जाग मुसाफ़िर भोर हुई, अब रैन कहाँ जो सोवत है। जो सोवत है, वह खोवत है, जो जागत है, वह पावत है।” शहीदे आजम भगत सिंह ने जहाँ ‘ग़ुलाम देश में विवाह न करने’ का व्रत लिया था, वहीं कर्पूरी जी ने प्रतिज्ञा की थी–‘ग़ुलाम देश में ग़ुलाम संतान पैदा नहीं करूँगा।’ यह उनका व्रत भी था और ग़ुलाम भारत का जनसन्देश भी, जिसका पालन उन्होंने दृढ़तापूर्वक किया। ग़ुलाम देश में विवाह हो जाने के बाद भी वे तब तक ब्रह्मचारी बने रहे, जब तक देश आज़ाद नहीं हो गया। उनके दोनों बेटे और एक बेटी आज़ादी के बाद पैदा हुए। यह थी कर्पूरी जी की प्रतिबद्धता। वे सिद्धान्त के इतने पक्के और दृढ़निश्चयी थे कि जो काम ठान लेते, उसे पूरा करके ही दम लेते थे। गांधीजी की तरह अनशन और सत्याग्रह उनका भी अस्त्र था। इसलिए उन्हें ‘बिहार का गांधी’ भी कहा जाता है। किन्तु यह विशेषण कर्पूरी जी के लिए बहुत छोटा है। वे गांधी से बड़े तो नहीं थे, पर गांधी के ज़माने में ही उनकी राष्ट्रीय ख्याति फैल चुकी थी। इसलिए उन्हें केवल बिहार का गांधी कहकर उनके क़द को छोटा नहीं किया जा सकता।
वैसे तो भारत में 18वीं सदी के उत्तरार्द्ध और 19वीं शताब्दी के आरम्भ तक चले आदिवासी विद्रोह भी ‘किसान आन्दोलन’ ही थे, किन्तु इसकी संगठित शुरुआत आज़ादी की लड़ाई के दौरान ही हुई। आज़ादी की लड़ाई किसान आन्दोलन से ही शुरू हुई थी। बिहार में 1917 के ‘चम्पारण सत्याग्रह’ और गुज़रात में 1918 के ‘खेड़ा सत्याग्रह’ किसान आन्दोलन ही थे। गांधीजी के नेतृत्व में शुरू हुए इन आन्दोलनों ने आज़ादी की लड़ाई में किसान आन्दोलन का रूप धारण कर लिया। ज़मींदारी प्रथा के कारण किसान ग़रीब होते चले गये। ‘कर’ के बोझ से सेठ, साहूकार और महाजनों से क़र्ज़़ लेकर खेती करना और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसे चुकाते रहने से उनके खेत बिके, ‘बेदख़ली’ हुई और वे किसान से मज़दूर होते चले गये। इन परिस्थितियों का व्यापक चित्रण प्रेमचन्द ने ग्रामीण जीवन और कृषक संस्कृति पर आधारित अपने उपन्यासों ‘कर्मभूमि, प्रेमाश्रम, गोदान’ आदि में किया है। बंगला उपन्यास ‘गणदेवता’ (ताराशंकर वन्द्योपाध्याय) और ओड़िया उपन्यास ‘माटी-मटाल’ (गोपीनाथ मोहन्ती) में भी किसान-मज़दूरों की तत्कालीन स्थिति का विशद् और मार्मिक चित्रण है। आज़ादी के बाद भी यह क्रम जारी रहा, जो कमोवेश आज भी जारी है। बिहार और देश के अन्य राज्यों में भी किसान घटते गये और मज़दूरों की संख्या बढ़ती चली गयी। कर्पूरी ठाकुर ने अपने दूसरे मुख्यमन्त्रित्व काल में 1961 और 1971 की जनगणना के तुलनात्मक आँकड़ों से इसे सदन में बताया था। उन्होंने कहा था–“1961 में हमारे यहाँ खेतिहर मज़दूरों की संख्या 37 लाख 84 हज़ार 119 थी, मगर 1971 में यह संख्या बढ़कर 68 लाख 6 हज़ार 103 हो गयी। यह वृद्धि 38.9% है। ...और आप कहते हैं कि हम भूमि-सुधार कर रहे हैं, ग़रीबों को ज़मीन बाँट रहे हैं! ...(इसके विपरीत) किसानों की संख्या 1961 में बिहार में 88 लाख 16 हज़ार 414 थी, लेकिन 1971 में यह संख्या घटकर 75 लाख 79 हज़ार 698 हो गयी। आप आबादी की बात कर रहे थे। लेकिन मज़दूरों की संख्या बढ़ती गयी। इससे बढ़कर कलंक की बात और क्या हो सकती है कि जो ज़मीन रखनेवाले थे, उनकी आर्थिक स्थिति इतनी ख़राब होती चली गयी कि उन्होंने अपनी ज़मीन को बेच दिया। फलस्वरूप किसानों की संख्या में ह्रास हुआ और खेतिहर मज़दूरों की संख्या में वृद्धि हुई। लेकिन आप हरिजनों (दलितों), आदिवासियों, पिछड़े वर्गों का नाम लेकर घड़ियाली आँसू बहाते हैं।” (मुख्यमन्त्री कर्पूरी ठाकुर का भाषण, बिहार विधानसभा की दिनांक 5 जुलाई 1977 की कार्यवाही, परिषद् साक्ष्य, फ़रवरी, 2014, पृष्ठ 154-55)
आज़ादी की लड़ाई के दौरान कांग्रेस के समाजवादी खेमे और गांधीवादी नेताओं ने मिलकर राज्यों में किसान सभा का गठन किया। उसमें समाजवादी और साम्यवादी (कम्युनिस्ट) भी मिल गये। सबने मिलकर ‘ऑल इंडिया किसान कांग्रेस’ की स्थापना की। इनमें एन.जी.रंगा, सहजानन्द सरस्वती, जयप्रकाश नारायण, कमला देवी चट्टोपाध्याय, मुजफ़्फ़र अहमद, इन्दूलाल, सज्जाद जहीर, जेड.ए. अहमद, आचार्य नरेन्द्र देव आदि नेता प्रमुख थे। 1937 में ‘किसान कांग्रेस’ का नाम बदलकर ‘अखिल भारतीय किसान सभा’ कर दिया गया। इस आन्दोलन को आगे बढ़ाने में सहजानन्द सरस्वती की प्रमुख भूमिका थी। वे आरम्भ से सर्वाधिक सक्रिय थे। उनके नेतृत्व में 1929-30 तक यह आन्दोलन परवान पर चढ़ चुका था। 1935 के ‘हाजीपुर सम्मेलन’ में किसान सभा ने ‘ज़मींदारी उन्मूलन’ का प्रस्ताव पास किया। ‘गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट’ के अनुसार हुए चुनाव 1935 में राज्यों में कांग्रेस की सरकारें बनीं। कायदे से उन्हें ‘ज़मींदारी उन्मूलन’ करना चाहिए था, क्योंकि पार्टी ने अपने चुनाव घोषणा-पत्र में इसका वादा किया था। किन्तु सरकार में अधिकांश लोग ज़मींदार ही जीत कर गये थे। इसीलिए इसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया।
ऐसे माहौल ने कर्पूरी ठाकुर जैसे सैकड़ों छात्र-नौजवानों को किसान आन्दोलन की ओर आकृष्ट किया। 1938 के दिसम्बर माह में कर्पूरी जी के गाँव के पास ओइनी गाँव आचार्य नरेन्द्र देव, राहुल सांकृत्यायन, जयप्रकाश नारायण, रामवृक्ष बेनीपुरी जैसे समाजवादियों के नेतृत्व में जो सम्मेलन हुआ था और जिसमें छात्र कर्पूरी ने पहली बार भाग लिया था, वह किसान आन्दोलन ही था। यह किसान आन्दोलन का प्रान्तीय सम्मेलन था। इस सम्मेलन ने कर्पूरी जी के बाल मन में किसान-मज़दूरों के प्रति गहरी सहानुभूति और दर्द भर दिया था। यह राष्ट्रीय समस्या जीवन भर कर्पूरी जी की मुख्य समस्या बनी रही। इसीलिए वे गांधीजी के ‘सर्वोदय’ और विनोबाज़ी के ‘भू-दान’ आन्दोलन में भी गये। वे सोचते रहे कि ग़रीब किसान-मज़दूरों का उत्थान कैसे होगा? आज़ादी के बाद भूमि का सवाल एक महत्त्वपूर्णराष्ट्रीय सवाल बनकर उभरा। कांग्रेस ने ‘कुमारप्पा समिति’ बनायी, जिसने ‘ज़मींदारी उन्मूलन’ एवं भूमि के पुनर्गठन की सिफ़ारिश की। इस अनुशंसा के आलोक में ‘अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी’ ने 1949 में भूमि के पुनर्गठन सम्बन्धी नीतियों को पास किया। 1950 में ‘ज़मींदारी उन्मूलन’ क़ानून पारित हो गया। 1950 से 1955 तक देश के प्रायः सभी राज्यों में ज़मींदारी उन्मूलन हो गया। किन्तुबिहार में देरी हुई।
‘ज़मींदारी उन्मूलन-1950’ के बाद बिहार में स्थिति साफ़ होने के बजायें और धुँधली हो गयी। डेनियल बर्नर ने लिखा है कि “भूमि-सुधार सम्बन्धी क़ानून के निर्माण में सबसे अधिक देर बिहार में हुई। 1950 में क़ानून बनने के बाद बिहार के ज़मींदारों ने पटना हाईकोर्ट में इस क़ानूनी बाध्यता के ख़िलाफ़ याचिका दायर कर दी। फलतः क़ानून निर्माण के आठ वर्ष बाद भी बिहार के ज़मींदारों का ज़मीन पर क़ानूनी स्वामीत्व बरकरार रहा। भूमि-सुधार अधिनियम 1959 बना। लेकिन इसमें भी इतनी सारी त्रुटियाँ थीं कि ज़मींदार और नेताओं ने इसका लाभ उठाया और ज़मींदारी उन्मूलन ठीक से लागू नहीं हो सका।” समाजवादियों और वामपन्थियों ने इसे प्रमुख मुद्दा बनाया। उन्होंने बकाश्त आन्दोलन, ज़मींदारी खात्मा आन्दोलन, जोत हदबन्दी और बासगीत ज़मीन की मिल्कियत आदि आन्दोलन पूरे बिहार में चलाया। विशेषकर पूर्णिया, दरभंगा और चम्पारण में यह आन्दोलन सघन रूप में चला। इनमें कर्पूरी ठाकुर की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।” (कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद, नरेन्द्र पाठक, पृ.181)
कर्पूरी ठाकुर ने अपने पूरे राजनीतिक जीवन-भर इस सवाल को उठाया और बहादुरीपूर्वक ज़मीन की लड़ाई लड़ी। यहाँ तक कि अपने संक्षिप्त संसदीय जीवन में भी 31 मार्च 1977 को लोकसभा के अपने प्रथम और अन्तिम भाषण में भी उन्होंने कहा कि “हमने ज़मीन बाँटने के लिए सन् 1948 में, 1949 में, 1950 में, 1951 में और 1952 में बड़े-बड़े प्रदर्शन किये थे। ज़मीन बँटवाने के लिए हमने सत्याग्रह किया था और जेल गये थे। लेकिन कांग्रेस ने उस पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने जब ज़मीन बाँटने की बात सोची, तब तक बाँटने के लिए ज़मीन ही नहीं बची थी।” (लोकसभा की कार्यवाही, 31 मार्च 1977) आपातकाल में अपने कलकत्ता प्रवास के दौरान भूमि सुधार और भूमि-वितरण की समस्या और धाँधलियों पर तो उन्होंने एक किताब ही लिख डाली–‘चेहरा इन्दिरा गांधी का, नज़र मेरी’, जो आज तक अप्रकाशित है। उसमें कर्पूरी ठाकुर ने लिखा है कि उस समय राजा-महाराजाओं, ज़मींदारों, नवाबों, ताल्लुकेदारों और बड़े काश्तकारों के पास दस, बीस, पच्चीस, पचास हज़ार एकड़ से लेकर एक लाख एकड़ तक ज़मीनें थीं। हम लोगों ने लड़ाई लड़ी। पर श्रीमानों ने आपस में या रिश्तेदारों में ज़मीन बाँट दी या बिक्री कर ली। यदि उस समय बँटवारा हो जाता, तो बिहार में कोई भूमिहीन नहीं रहता। कर्पूरी ठाकुर ने बिहार विधानसभा में बराबर भूमि-सुधार का सवाल उठाया, किन्तु भूमि-सुधार ठीक से लागू नहीं हो सका। जब वे ख़ुद मुख्यमन्त्री बने, तो इसे लागू कर सकते थे। वे भूमि-सुधार करना भी चाहते थे। किन्तु पहली बार उनकी सरकार बहुत कम दिनों तक रही। दूसरी बार जब उन्होंने भूमि का बँटवारा करना चाहा, तो उनकी सरकार में बैठे ज़मींदारों ने ही साथ नहीं दिया। उनके ‘पिछड़ा वर्ग आरक्षण’ से ही वे नाराज़ थे।
आरक्षण की तरह भूमि-सुधार कार्यक्रम भी केवल राजनीतिक और प्रशासनिक कार्य नहीं था। यह सामाजिक और सांस्कृतिक वर्चस्व को तोड़ना भी था, जिसके लिए दृढ़ इच्छा-शक्ति और दीर्घजीवी और मज़बूत सरकार चाहिए थी। कर्पूरी ठाकुर के पास दृढ़ इच्छा-शक्ति तो थी, पर बाक़ी दोनों चीज़़ों का अभाव था। फिर भी बिहार पहला राज्य था, जहाँ उप-मुख्यमन्त्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर ने 1967 में मालगुजारी माफ़ कर दी। अपने दूसरे मुख्यमन्त्रित्व काल में यथाशक्ति भूमि का बँटवारा किया। इसका प्रमाण उनके नेतृत्व में वित्त मन्त्री द्वारा 22 मार्च 1979 को सदन में रखा गया बजट है। वित्त मन्त्री ने अपने बजट भाषण में कहा था–“16 जुलाई 1977 से फ़रवरी 1979 तक ‘भू-हदबन्दी अधिनियम’ के अन्तर्गत 5,944 एकड़ भूमि का अर्जन किया गया। 16,470 एकड़ भूमि का वितरण हुआ, जिससे 16,736 परिवार लाभान्वित हुए। इस बीच आवंटियों के सम्बन्धित भूमि से बेदख़ल करने की सूचना भी प्राप्त हुई। इस अवधि तक 823 आवंटियों के सम्बन्ध में ऐसी सूचना मिली, जिसमें 870 को़ भूमि पर पुनः क़ब्ज़ा दिला दिया गया। ...जुलाई, 1977 से फ़रवरी, 1979 तक 30,787 एकड़ भूदान भूमि का वितरण किया गया, जिसमें 51,419 परिवार लाभान्वित हुए। जुलाई, 1977 से फ़रवरी, 1978 तक 18,064 परिवारों में 11,788 एकड़ सरकारी भूमि का वितरण किया गया। जुलाई, 1977 से फ़रवरी, 1979 तक 55,845 बासगीत पर्चे वितरित किये गये। इस अवधि में 12324 बटाईदारों के मामलों को निष्पादित किया गया। जुलाई, 1977 तक 4,489 एकड़ भूमि आदिवासियों को वापस करायी गयी। इसी अवधि में 7,320 गृहविहीनों को विकसित गृह-स्थल आवंटित किये गये।” (‘विकासोन्मुख बिहार : बजट के आईने में’ सूचना एवं प्रसारण विभाग, बिहार सरकार के हवाले से नरेन्द्र पाठक, कर्पूरी ठाकुर और समाजवाद, पृ.186)
आरक्षण की तरह अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में भूमि-सुधार योजना को लागू न करने के लिए कर्पूरी ठाकुर की आलोचना की जाती है। इस बात में कुछ सच्चाई भी है और कुछ मजबूरी भी। गोरखपुर विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर और उनके क़रीबी मित्र प्रो. उदयभान त्रिपाठी ने एक संस्मरण सुनाया था–“1980 में कर्पूरी जी जब एक चुनावी सभा में गोरखपुर आये, तो मेरे घर पर रुके। भोजन के बाद जब वे आराम कर रहे थे, तब मैंने अन्य बातों के अलावा भूमि-सुधार के बारे में भी पूछ लिया। मेरी इस बात पर वे तमतमाकर उठ बैठे। उन्होंने गम्भीर होकर कहा–‘उदयभान जी, मैं जिस सरकार में मुख्यमन्त्री था, उस सरकार का हर एक मन्त्री कम-से-कम अपने आपको मुझसे ताक़तवर मानकर चल रहा था। मैं जिस मन्त्रिमण्डल की बैठक में भू-हदबन्दी का प्रस्ताव लाता, उस मन्त्रिमण्डल की बैठक के बाद मैं जीवित बाहर नहीं आता, मेरी लाश आती। और जानते हैं, उस बैठक में जो पिछड़ी जाति के सामन्त थे, वही पहले मेरी हत्या करते। यदि मुझे ज़िन्दा रहक़र ग़रीब और कमज़ोर जातियों के लिए कुछ करना था, तो उस प्रस्ताव को अभी ठण्डे बस्ते में ही पड़े रहने देने में मेरी और दलित पिछड़ों की भलाई थी। मुझे ख़ून का घूँट पीकर रह जाना पड़ता है, जब ग़रीबों पर अत्याचार होता है और वह अत्याचार अगड़ी जाति के सामन्तो से पहले पिछड़ी जाति के सामन्तों द्वारा होता है। मैं उस दिन के इन्तजार में हूँ, जब ये कमज़ोर जातियाँ संगठित होकर सामन्तों के जुल्म के एक एक पल का हिसाब माँगेंगे, तब बड़े भू-धारी लोग, जो ग़रीबों का हक़ मारकर पटना, राँची और दिल्ली में महल खड़ा किये हैं–ख़ुद भाग जायेंगे। उदयभान जी, पता नहीं वह दिन कब आयेगा? मैं दिन-रात इसी सोच में डूबा रहता हूँ।” (वही, पृ.185)।
Limited-time offer: Big stories, small price. Keep independent media alive. Become a Scroll member today!
Our journalism is for everyone. But you can get special privileges by buying an annual Scroll Membership. Sign up today!