अभय कुमार दुबे के किताब हिन्दू-एकता बनाम ज्ञान की राजनीति का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


बहुसंख्यकवाद का बढ़ता हुआ बोलबाला : मध्यमार्गी विमर्श दावा करता है कि भारत जैसे बहुलतापरक समाज में लोकतांत्रिक प्रतियोगिता की प्रकृति बहुसंख्यकवादी रुझानों को हतोत्साहित करती है, तो उसके पास अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए नब्बे के दशक तक के आँकड़े होते हैं। लेकिन नयी सदी के आँकड़े इस दावेदारी के उलट यह दिखाते हैं कि अब चुनावी प्रतियोगिता एक ऐसे माहौल में हो रही है जहाँ आम वोटर की समझ में लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद एक-दूसरे के पर्याय बनते जा रहे हैं ।

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नयी सदी के पहले दशक में (2004 का लोकसभा चुनाव ) जिस समय कांग्रेस ने गठजोड़ राजनीति की प्रतियोगिता में भाजपा को पराजित करके सत्ता हासिल की, तो आम समझ यह बनी कि यह सेकुलरवाद की जीत है। भाजपा की इण्डिया शाइनिंग मुहिम की विफलता को साम्प्रदायिक राजनीति की विफलता माना गया। लेकिन, सुहास पल्शीकर ने अपने गहन सर्वेक्षण-आधारित आँकड़ागत विश्लेषण से न केवल इस धारणा को चुनौती दी, बल्कि भारतीय राजनीति में बहुसंख्यकवादी आग्रहों के पुष्ट होते जाने की प्रक्रिया की शिनाख़्त की। पल्शीकर ने जिन अहम बिंदुओं पर रोशनी डाली वे इस प्रकार हैं :

1. 2004 में भाजपा चुनाव अवश्य हार गयी लेकिन अंदेशा साफ़ तौर पर दिखा कि दूरगामी दृष्टि से उसने साम्प्रदायिक विभाजन की राजनीति में सफलता प्राप्त कर ली है । वह भाजपा की पराजय थी, पर भाजपा के विचारों की नहीं । सेकुलरवाद जीत गया था, पर वह जीत क्षणभंगुर थी ।

2. इस चुनाव में पार्टी और धर्म के बीच एक नाता बनता हुआ दिखा। भाजपा और उसके सहयोगियों को चालीस फ़ीसदी हिंदुओं ने वोट दिया, जबकि कांग्रेस और उनके सहयोगियों को केवल 34 फ़ीसदी हिंदुओं ने ही वोट दिये । यह इसके बावजूद हुआ कि भाजपा ने चुनाव में स्पष्ट रूप से हिंदू ध्रुवीकरण का प्रयास नहीं किया। इण्डिया शाइनिंग मुहिम विकास के बारे में थी, न कि हिंदू ध्रुवीकरण के बारे में। यानी बिना साम्प्रदायिक कार्ड खेले हुए भाजपा हिंदुओं को यह संदेश पहुँचाने में सफल रही कि वह उनकी पार्टी है और ज़्यादातर हिंदुओं ने उसके इस दावे को क़बूल भी किया।

3. दक्षिण और वाम सिरों के बीच में भारतीय राजनीति का मध्यमार्ग स्वयं को पुनः परिभाषित करता हुआ लगा । यह नयी परिभाषा बता रही थी कि ज़्यादातर लोग लोकतंत्र का मतलब बहुसंख्यकवाद के रूप में समझने लगे हैं, धार्मिकता की अभिव्यक्तियाँ सघन रूप से बढ़ती जा रही हैं, अपने-अपने समुदाय के प्रति निष्ठा रखने का आग्रह इस हद तक बढ़ गया है कि लोग अंतर-धार्मिक और अंतर-जाति विवाहों पर प्रतिबंध लगाने की बात करने लगे हैं (ज़्यादातर लोग धर्मांतरण पर भी पाबंदी चाहते हैं और वे अलग-अलग विवाह क़ानूनों का समर्थन करते हैं, अर्थात् वे समान नागरिक संहिता के पक्ष में नहीं हैं), साम्प्रदायिकता को खुल कर बढ़ावा देने वाली घटनाओं के बारे में स्पष्ट जागरूकता का अभाव होता जा रहा है, अल्पसंख्यक हितों को मान्यता देने का आग्रह कमज़ोर होता जा रहा है, और लोग स्पष्ट रूप से यह नहीं समझते कि उनके इन रवैयों का भाजपा के पक्ष में उनके रुझान से कोई ताल्लुक़ है ।

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4. जब लोगों से पूछा गया कि क्या लोकतंत्र में बहुसंख्यक समाज का दृष्टिकोण ही सर्वोपरि होना चाहिए, तो 35 फ़ीसदी लोगों ने इसके पक्ष में मत दिया, 35 फ़ीसदी लोग इसके विरोध में थे, और 30 फ़ीसदी अनिर्णय के शिकार रहे। लेकिन ख़ास बात यह थी कि पक्ष में मत देने वाले 35 फ़ीसदी लोगों के बीच 34 फ़ीसदी कांग्रेस के समर्थक थे और 39 फ़ीसदी भाजपा के । यानी, बहुसंख्यकवादी दृष्टिकोण भाजपा ही नहीं, ग़ैर-भाजपा दायरों में भी पनपता दिखाई पड़ा। शिक्षित लोग ही सबसे ज़्यादा बहुसंख्यकवादी निकले (कॉलेज में शिक्षित 44 फ़ीसदी और हाई स्कूल तक पढ़े 40 फ़ीसदी)।

5. क्या बहुसंख्यकवाद के प्रति लोगों का रुझान हमेशा ही हिंदू होने के आग्रह से ही जुड़ा है? सुहास पल्शीकर के मुताबिक़ हिंदू होना तो इसका एक उल्लेखनीय पहलू है ही, बहुसंख्यकवाद की शक्लसूरत समुदाय, जाति और क्षेत्रीय संदर्भों में भी बनती है । जहाँ इनमें से दो या तीन पहलू एक साथ आ जाते हैं, वहाँ बहुसंख्यकवाद के प्रति आग्रह प्रगाढ़ हो जाता है। जहाँ समुदाय, जाति और क्षेत्रीयता के स्तर पर कई तरह की टूट है, वहाँ बहुसंख्यकवाद की अभिव्यक्तियाँ कमज़ोर या मंद हैं।

सुहास पल्शीकर ने भारतीय राजनीति में बहुसंख्यकवाद की जिस बढ़ते हुए रुझान को आँकड़ागत तरीक़े से रेखांकित किया है, उसे एक अन्य दृष्टिकोण की रोशनी में देखने पर उसका संगीन किरदार और स्पष्ट हो जाता है । मैं ऊपर दिखा चुका हूँ कि बहुजनों का जाति आधारित बहुसंख्यकवाद किस तरह से हिंदुत्व आधारित बहुसंख्यकवाद से राजनीतिक होड़ में पिछड़ गया है। दरअसल, भारतीय राजनीति के विकास-क्रम पर इस दृष्टि से भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या वह बहुलतावाद की क़ीमत पर तरह-तरह के बहुसंख्यकवादों की प्रतियोगिता तो नहीं बनती जा रही है? राजनीतिक ताक़तें चुनाव जीतने के लिए कमोबेश स्थायी क़िस्म की राजनीतिक एकताएँ बनाने की जुगाड़ में लगे रहते हैं ।

बहुलतावाद के प्रति श्रद्धा केवल किताबी है, और इस मैदान के सभी खिलाड़ी ख़ुद समरूपीकरण करते हैं और अपने प्रतिद्वंद्वी पर बहुलता का विरोधी और समरूपीकरण का पक्षधर होने का आरोप लगाते हैं । बहुजनवाद अनुसूचित जातियों को दलित एकता के ग्रिड में बाँधने, ओबीसी जातियों को सामाजिक न्याय के ग्रिड में बाँधने और मुसलमान जातियों को सेकुरलवाद के ग्रिड में बाँधने के बाद इन तीन विशाल एकताओं को आपस में जोड़ कर एक महा-एकता या महा-समरूपीकरण करने के काल्पनिक विचार की देन है । इसी तरह हिंदुत्ववादी बहुसंख्यकवाद दलित, ओबीसी और मुस्लिम समरूपीकरण की प्रक्रिया को तोड़ कर समाज के ग़ैर-इस्लामी और ग़ैर-ईसाई समाज के हिस्सों का हिंदुत्व के तले समरूपीकरण करने की चाहत का नाम है। इसी तरह पंजाब का सिख बहुसंख्यकवाद है जो अकाली- खालसा-पंथिक ग्रिड में प्रत्येक सिख को लाना चाहता है । अपनी-अपनी वैचारिक- राजनीतिक सुविधा के अनुसार विद्वानगण और एक्टिविस्ट एक बहुसंख्यकवादी कोशिश की तरफ़ से आँख बंद करके दूसरे की आलोचना करते रहते हैं।

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पार्टी प्रणाली का क्षय : ऊपर मध्यमार्गी विमर्श के भीतर मौन रह गये विमर्शों का जो संक्षिप्त मानचित्र पेश किया गया है, वह उस समय तक अधूरा ही रहेगा । जब तक भारत की पार्टी प्रणाली में आने वाले उन परिवर्तनों की चर्चा न कर ली जाए जिसके तहत चलने वाले राजनीतिक घटनाक्रम का अवलोकन करते हुए ये अवलोकन किये गये हैं । इस परिवर्तन पर योगेंद्र यादव और सुहास पल्शीकर ने गहराई से विचार किया है । इन्हीं दोनों विद्वानों के काम का सहारा लेकर धीरूभाई शेठ ने दिखाया है कि किस तरह पार्टी प्रणाली की इन समस्याओं के कारण हिंदुत्व के लिए अनुकूल ज़मीन बन रही है ।

दरअसल, यह समस्या उत्तर-कांग्रेस राजनीति की देन है । इसे अस्सी के दशक से चल रहे कांग्रेस के क्रमशः राष्ट्रीय संकुचन का संचित परिणाम कहा जा सकता है। 1989 में हुए लोकसभा चुनाव से यह स्पष्ट होने लगा था कि राजनीतिक प्रतियोगिता का विनियमन करने वाली वह पार्टी-प्रणाली अब प्रभावी नहीं रह गयी है जो बहुमत वाली सरकार बना कर लोकतांत्रिक व्यवस्था को राजनीतिक स्थिरता देने का काम करती थी । इस प्रणाली को साधने वाली केंद्रीय शक्ति कांग्रेस का राष्ट्रव्यापी प्रभुत्व था जिसमें 1967 के चुनावों के बाद क्षय होने लगा था। लेकिन इसके बावजूद केंद्र में बहुमत की स्थिर सरकारें बनती रहती थीं। 1989 के बाद पाँच सालों में दस लोकसभा चुनाव हुए। यह निरंतर राजनीतिक उथल-पुथल का समय था । इसी दौरान राजनीतिक दलों के जनाधार में बड़े-बड़े परिवर्तन हुए। पिछड़ी जातियों के समर्थन से पहले ही वंचित हो चुकी कांग्रेस इस चुनाव के बाद से अनुसूचित जातियों, मुसलमानों और ऊँची जातियों का समर्थन भी खोती लगने लगी। उसके ग्राफ़ में आयी गिरावट के मुक़ाबले भारतीय जनता पार्टी के पाँव ऊँची जातियों में जमते चले गये और कुछ कम हद तक ही सही आदिवासी और अनुसूचित जातियों के वोट भी उसके साथ जुड़ने लगे। कांग्रेस की क़ीमत पर पूरे देश में क्षेत्रीय पार्टियाँ भी पनपीं । किसी एक पार्टी को बहुमत न मिलने के कारण गठजोड़ राजनीति का बोलबाला हो गया। सत्ता में हिस्सेदारी के लिए राजनीतिक सौदेबाज़ी का माहौल बना । परिणामस्वरूप क्षेत्रीय शक्तियों और एक जातिगत समुदाय की गोलबंदी पर टिकी हुई पार्टियों का महत्त्व उनकी वास्तविक राजनीतिक ताक़त से अधिक बढ़ गया। धीरे-धीरे कोई भी पार्टी सही अर्थों में राष्ट्रीय नहीं रह गयी । पार्टी प्रणाली एक से अधिक प्रांतों में प्रभावी दलों और एक क्षेत्र में प्रभावी दलों की प्रतियोगिता का नाम बन गयी।

धीरूभाई के मुताबिक़ इस प्रक्रिया के चार परिणाम निकले : पहला, क्षेत्रीय दलों ने पार्टी प्रणाली में अपने पैर गहराई से जमा लिए । राष्ट्रीय पार्टियाँ कमज़ोर हो कर केंद्र में बहुमत बनाने के लिए उन पर निर्भर हो गयीं। सरकार गिरा देने की धमकी के कारण छोटी पार्टियों द्वारा अपने बड़ी ताक़तों को ब्लैकमेल करने की घटनाएँ आम हो गयीं। साथ ही बार-बार चुनावों को रोकने के नाम पर सरकार बनाने के लिए चुनाव में एक-दूसरे के ख़िलाफ़ लड़ने वाली पार्टियाँ चुनाव के बाद मौक़ापरस्त गठजोड़ बनाने लगीं। इसे रोका जा सकता था चुनाव-पूर्व गठजोड़ों के लिए विधिक मान्यता के संवैधानिक प्रावधान किये जाते । लेकिन ऐसे संस्थागत उपाय नहीं किये गये। नतीजा यह निकला कि राजनीतिक नैतिकता को एक मज़ाक बना दिया गया। दूसरा, इस परिस्थिति ने लोकतंत्र को चुनावबाज़ी में घटा दिया ।

“जीतने की क्षमता” सबसे बड़ा मानक बन गयी। तीसरा, राजनीतिकदल राज्य और समाज के बीच विभिन्न हितों और पहचानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभाने लायक़ नहीं रह गये । क्षेत्रीय स्तर पर पार्टियाँ पूरे क्षेत्र के समग्र हितों की नुमाइंदगी करने के बजाय कुछ ख़ास जातियों, जातीयताओं या धर्मों की नुमाइंदगी करने वाले संगठनों में घट गयीं। चौथा, गठजोड़ों का नेतृत्व करने वाली राष्ट्रीय पार्टियाँ ऐसे 'राष्ट्रीय मुद्दों' की शिनाख़्त करने पर मजबूर हो गयीं जो जाति, धर्म और क्षेत्र की सीमाओं से परे जाते हों । सर्वभारतीय राजनीति की खोज ने भी राजनीति के साम्प्रदायिकीकरण को बढ़ावा दिया । विडम्बना यह हुई कि इस चक्कर में जाति और जातीयता आधारित क्षेत्रीय शक्तियाँ साम्प्रदायिक राजनीति की प्रतिसंतुलनकारी ताक़त समझी जाने लगीं। ग़ैर-सेकुलर धर्म-आधारित राजनीति का मुक़ाबला ग़ैर-सेकुलर जाति-आधारित राजनीति से करने की कोशिश होने लगी और इस प्रक्रिया में जाति आधारित राजनीति करने वाले संगठन ख़ुद को सेकुलरवाद का रहनुमा बनने का दावा करने लगे।