अरुण कमल के किताब रंगसाज की रसाई का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


पवित्रता

(एक कामगार स्त्री के लिए)

तुम्हारे लिए सबसे जरूरी है वह स्त्री
जो अभी अभी रोटियाँ सेंक कर
रख गयी है रात की खातिर,
जो अभी अभी उतरी है सीढ़ियाँ,
गलियों के अँधेरों से होती जो
जा रही होगी अपनी अँखमुँदी कोठरी में

कल जब वह आयेगी फिर
कई पसीनों से भींगी पूछना मत कुछ

जिसने तुम्हें रात की रोटी दी
जिसने तुम्हारे खाली पेट को बसाया
जिसने घर को रोशनी दी शाम की
वह सबसे पवित्र है सबसे धवल

मुझे वो गुलाब लगा ज्यादा सुगन्ध भरा
जो कई कई साँसों से भींगता मुझ तक आया।


उमर

एक उमर होती है जब कोई खबर मिलती है और
उस रोज चूल्हा नहीं जलता
कोई खबर मिलती है और
हाथ का कौर छोड़ हम उठ जाते हैं
एक उमर होती है जब ये खबरें लगातार आती हैं
सुबह काग के बैठने से रात कुत्तों के रोने तक
और हम चुप सुनते रहते हैं
बाढ़ का पानी चढ़ता आता है।
एक उमर होती है जब कोई चीज हमें एक जगह स्थिर
बैठने नहीं देती
उन्हीं रास्तों गलियों मुँड़ेरों
की तरफ हम भागते बेचैन जैसे अँगारे हों तलवों के नीचे।
एक उमर होती है जब बारातों दावतों की धूम होती है
और हम निकालते हैं अपनी साफ कमीजें जिनका एक बटन
अक्सर टूटा मिलता है छाती पर
और इत्र और इतने लोग साँसों पर साँसें।
एक उमर होती है जब खबर आती है
मानो कोई दरवाजा पीटता हो कि
गाड़ी तैयार है
और हम हाथ देते हैं –
रुको ठहरो बस कपड़े बदल लूँ।
एक उमर आती है जब यह देह-
शहद की एक ठिठकी बूँद भंगुर
हारता जीवन, ग्राह खींचता बीच भँवर
और मैं पुकारता हूँ जो खड़े हैं दूर तट पर –
उन सब फूलों का आभार जिनसे बनी थी यह काया।

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रंगसाज की रसोई

तुम्हारी रसोई में देखा
सैकड़ों साल पुरानी ईंट का रंग –
वही रंग नालंदा का रंग
गेरू के ढेले का रंग
मिट्टी पानी आग का रंग

और अखबारों के गूदे से बनी ईंटें
गल चुकी खबरों की,
खून हिंसा जुल्म की,
तानाशाहों की गलित तस्वीरों, की ईंटें

सामने चोरमीनार जिसके ताखों में कभी
झूलते थे हवा में नरमुण्ड
घंटियों के लोलक-से

वो झूलती आवाज अब एक रंग है
कटते कंठ की आखरी बुदबुद,
काठ की मेज पर न जाने कितने बुरुशों के रंग हैं
और हर रंग एक सिसकी है, रुदन, शाप या हास
हर रंग एक नाद हर नाद एक रंग

देखने के लिए
कितना सोचना पड़ता है आँखों को
कितना सलाह-मशविरा सारी इन्द्रियों
समूचे शरीर से

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हर रचनेवाले की रसोई ऐसी ही होती हो शायद –
कड़ी धूप में सूखते जूठे बर्तनों पर ठहरीं मक्खियाँ,
कहीं सिकुड़ता खौला हुआ जल,
कहीं अभी अभी पेरा हुआ ईख का उष्ण रस
और कहीं हजारों साल पुराना ढेला सेंधा नमक का –
यह बनने की जगह है, चावल के
भात बनने की जगह
सब कुछ के रस में बदलने की जगह –
दूर समुद्रों की मछलियाँ भी बनती तो हैं अपनी ही
रसोई में

यहाँ हर चीज को, हवा तक को, अपनी बारी का इंतजार है
और नमक को इंतजार है रसोइए के अंदाज का

कह नहीं सकता वहाँ क्या पक रहा था चुपचाप
निर्धूम आँच पर
वैसे भी वर्जित है रसोई में प्रवेश।

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(मनीष पुष्कले के स्टुडियो में)

पुकार

आवाज मेरी डूबती सी दूर से आती लगे जब
तब समझना घिर गया हूँ
भटक अपने 'यूथ सेवन में बहुत भीतर
या ले गयी है लहर कोई लोभ देती दूर
अपने क्रोड़ में

दिन रात घुटती छटपटाती देह
पीस अन्तिम साँस तुमको टेरती जब
चुप न रहना बंद कर लेना न द्वार बोलना तुम भी निकल बाहर सुनूँ या ना सुनूँ मैं !