अलका सरावगी के उपन्यास गांधी और सरलादेवी चौधरानी: बारह अध्याय का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


आश्रम में रहते हुए सरला के कानों में इस तनाव की बात आयी थी। गांधी की शारीरिक कमज़ोरी के कारण और आश्रम में पढ़ाने आनेवाले वृद्ध मिशनरी के लिए आश्रम में मोटरगाड़ी का कई बार उपयोग करना पड़ता था। सरला की बात से गांधी सहमत थे कि आर्थिक दृष्टि से मोटर लेना आश्रम के लिए किफ़ायती होगा, पर मगनलाल इसे गांधी का विचलन मान रहा था। सरला के मन में यह सन्देह उठा था कि गांधी का सरला की बातों को महत्त्व देना भी मगनलाल को परेशान करता था। वह जानती थी कि मगनलाल उसे अभिजात कुल की मानता है, जिसका आश्रम की सादी और कठोर जीवनशैली से कोई मेल नहीं हो सकता।

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सरला कभी-कभी रसोईघर में खाना न खाकर अपने कमरे में खाना खाती है, इस बात पर भी मगनलाल ने आपत्ति दर्ज की थी। एक दिन दीपक ने आकर सरला को कहा- माँ, तुम्हें आश्रम के नियम मानने चाहिए। यहाँ किसी को अपने कमरे में खाने की अनुमति नहीं है। ‘सरला ने अचरज से पूछा था- “क्या किसी ने तुमसे कुछ कहा?” दीपक ने ‘नहीं’ करते हुए सिर हिलाया था, पर सरला उसका मुख देखकर समझ गयी थी कि उसने ज़रूर कहीं कुछ सुना है। उसका शक़ तुरन्त मगनलाल पर गया था।

कुछ दिनों से सरला मगनलाल का अपने प्रति बदला हुआ रुख़ देख रही थी। मगनलाल ख़ुद बहुत कड़े अनुशासन से रहता था और किसी की थोड़ी-सी भी लापरवाही बर्दाश्त नहीं करता था। सरला ने सुना था कि उसके गुस्सैल स्वभाव की शिकायत पहले भी गांधी जी को की गयी थी। मगनलाल ने महाकवि रवीन्द्रनाथ टैगोर के साबरमती में आने पर उनके स्वागत में किये गये ख़र्च पर ऐतराज़ किया था। इतना ही नहीं, आश्रमवासी इमाम साहिब की बेटी फ़ातिमा के आश्रम में हुए विवाह पर हुए ख़र्च को लेकर भी वह नाख़ुश था।

यह क्या कोई कम विडम्बना है कि एक तरफ़ गांधी सरला को बार-बार जगदीश की शादी में ख़र्च और आडम्बर से बचने की सलाह देते रहे हैं और दूसरी तरफ़ ख़ुद उन पर आश्रम में हुई शादी में किये गये ख़र्च पर उनवेफ भक्त ही अपनी नाराज़गी ज़ाहिर कर रहे हैं। मगनलाल को जानते हुए सरला को इसमें कोई शक़ नहीं कि महाकवि के स्वागत में या फ़ातिमा की शादी में लगायी गयी बत्ती की झालर या फूलों की माला लगाने जैसा कोई मामूली ख़र्च ही मगनलाल को फ़िज़ूलख़र्ची लगा होगा। ग़रीबी में जीने के टॉलस्टॉयी दर्शन को जीते हुए गांधी अब ख़ुद ही कटघरे में खड़े कर दिए गये हैं कि आश्रम में बेवजह ख़र्च किये गये। ऐसे माहौल में सरला का हमेशा के लिए आश्रम में रहने जाना क्या सही क़दम होगा?

मई महीने का एक सप्ताह बीतते-बीतते ही गांधी ने पत्र में सरला को गुरुकुल पर लिखे लेख का अनुवाद कर डालने की सूचना दी है। पहले तो इतना-सा अनुरोध् करने पर इतनी खीझ दिखायी और अब दो दिन में ही अनुवाद कर डाला। सरला जवाब में लिखेगी , ‘‘ठीक है जनाब! आप मेरे सेक्रेटरी नहीं हैं। आगे से ऐसी कोई ख़ातिर की आपसे मैं उम्मीद नहीं रहूँगी!’’

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गांधी की कसौटियों पर खरा उतरना क्या आसान है? गांधी ने सिन्ध् से उनसे मिलने आये जवान स्काउट छात्रों के बारे में क्षुब्ध् होकर लिखा है कि स्टेशन से आश्रम आने के लिए पैदल चलने की बजाय उन्होंने पन्द्रह रुपये में गाड़ी भाड़े पर ली। गांधी लिखते हैं कि वे यदि उनके मास्टर होते तो उन्हें पैदल ही चलवाते। बच्चों को शिक्षा देने का यह तरीक़ा एकदम बेवव़ूफ़फाना है। सरला के मन में अचानक दीपक का चेहरा घूम जाता है। क्या दीपक के साथ भी गांधी ऐसी सख़्ती करते होंगे? एक क्षण के लिए उसे दीपक को साबरमती भेजने के निर्णय पर सन्देह हुआ, पर गांधी तो दीपक के साथ काफ़ी नरमाई बरतते हैं। उसे अपने मामा ज्योत्स्नानाथ घोषाल से, जो वहाँ के कलेक्टर हैं, हर रविवार मिलने की छूट है। सरला को मालूम है कि मगनलाल गांधी इस बात से भी नाख़ुश है।

मगनलाल के बारे में सोचते हुए सरला के मन में एक सवाल हमेशा उठता है। क्या गांधी अपना विरोध् करने वालों के प्रति सचमुच उतने ही स्नेही हैं जितना वे दिखते हैं? ऐसे लोगों में एक तो बुरज़ोर जी पादशाह हैं जो गांधी के ‘असहयोग आन्दोलन’ के विरोधी हैं। पादशाह के जैसा शिक्षित विद्वान पूरे देश में मिलना मुश्किल है। वे जमशेदजी टाटा के जमाई बनने वाले थे, पर शादी के पहले ही जमशेदजी की बेटी की मृत्यु होने पर जमशेद टाटा ने उन्हें दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों का अध्ययन करने बाहर भेज दिया। इंडियन इंस्टीच्यूट ऑफ़ साइंस जैसी संस्था के निर्माण में पादशाह की बड़ी भूमिका है। पादशाह की अद्भुत स्मरणशक्ति, हर विषय में गहन अध्ययन और शिक्षा वेफ लिए समर्पित जीवन के कारण गांधी स्वयं अपने विद्यार्थी-काल से ही उनके बड़े प्रशंसक रहे हैं।

सरला जब साबरमती आश्रम में थी तब ‘ईस्ट एंड वेस्ट’ पत्रिका में बुरज़ोर जी पादशाह का एक लेख छपा था। गांधी की कई दिनों तक सरला से उस लेख पर चर्चा चली। पादशाह ने लिखा था कि जब अहिंसा को ख़ुद ही एक धमकी की तरह इस्तेमाल किया जा रहा हो, तो अहिंसा धर्म कैसे हो सकता है? यदि हम अपनी ताक़त से अपने विरोधी को डरा रहे हों कि वह हमारी बात मान ले, तो इसे कम-से-कम आध्यात्मिक या दिव्य तो नहीं कहा जा सकता।” गांधी का कहना था कि पादशाह की आपत्ति से सहमत न होते हुए भी वे उसका जवाब देने की कोशिश करेंगे। पादशाह अँग्रेज़ों की तरह अहिंसा को एक धमकी की तरह देख रहे हैं, किन्तु असहयोग आन्दोलन का लक्ष्य सच्चा सहयोग है। सामनेवाला अन्याय न करे, तभी उससे सच्चा सहयोग किया जा सकता है। वे पादशाह को बताना चाहते हैं कि अहिंसा का अर्थ ख़ुद को कष्ट देकर झुकना होता है, धमकी नहीं।

एक दिन गांधी ने सरला की ओर पादशाह को लिखा पत्र पढ़ने के लिए दिया। सरला ने हैरत से पढ़ा कि पादशाह को अहिंसा का अर्थ समझाने के लिए गांधी अपनी निजी बातों का ज़िक्र कर रहे थे। कैसे तेरह साल की उम्र में उनकी नवविवाहिता पत्नी मार खाकर भी अपनी आँखों में दुनिया का गुस्सा भरकर उनका प्रतिवाद करती थी, किन्तु उन आँखों में धमकी न होकर पीड़ा सहने की एक गहरी ज़िद होती थी। बाद में गांधी ने अपनी पत्नी वेफ प्रतिवाद की नक़ल करते हुए उसका परोसा खाना न खाकर, साथ न सोकर और बातचीत बन्द कर अपना विरोध जताया। पर गांधी भी यहाँ

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धमकी न देकर ख़ुद को ही पीड़ा दे रहे थे। इस तरह गांधी ने असहयोग का पाठ अपने ही जीवन से सीखा है। अभी के माहौल में कष्ट सहने की अपनी आंतरिक शक्ति का इज़हार करना धमकी माना जा रहा है।

गांधी अपने पत्र पर सरला की निष्पक्ष राय जानना चाहते थे। पहली बार सरला निरुत्तर हो गयी थी। उसे सूझ नहीं रहा था कि वह क्या बोले? पादशाह की बात उसे पूरी तरह ग़लत नहीं लग रही थी। हम बात अहिंसा की करें, पर अहिंसा से सामने वाले को झुकने पर मजबूर करें, तो यह अहिंसा कैसे हुई? गांधी ने अपनी पत्नी के साथ अपने व्यवहार का जो ज़िक्र किया था, वह सरला को स्तब्ध कर गया था। असहयोग में अपने को कष्ट देने का लक्ष्य है, विरोधी को नहीं- यह बात पूरी तरह सरला के गले के नीचे नहीं उतर रही थी। सरला ने गांधी को कहा कि वह कुछ दिन सोचकर जवाब देगी। उसने कहा कि भले ही असहयोग करने के पीछे गांधी की भावना ख़ुद को पीड़ा देने की हो सकती है किन्तु सामनेवाला उस भावना को न भी समझ सकता है। गांधी सरला की बात से सहमत हुए थे कि विरोधी पक्ष के लिए उनके मन्तव्य पर शक़ करना सहज है।