रामधारी सिंह दिवाकर के उपन्यास अन्तिम अध्याय का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
आज के बटचौपाल में राजाराम महतो को छोड़ बाकी तीन उपस्थित थे। बातचीत के केन्द्र में पाठक जी आ गए। वजह थी उनके बेटे समर का आना और दो दिन बाद दिल्ली लौट जाना। किराये के चार कमरे बनाने का काम ठेकेदार को देकर गया है।
“अब आपके अच्छे दिन आ गए पाठक जी!” छोटू बाबू मुस्कराते हुए बोले, “किराये के नये कमरे बन जाएँगे तो आपको चौगुना-पँचगुना किराया आएगा।”
पाठक जी धीरे से बोले, “वह तो बाद की बात है छोटू बाबू, अभी तो किराया आना बन्द हो गया।”
“समर ने आपको रुपये नहीं दिये हैं?”
“हाँ, मिले हैं दस हजार। इससे क्या होगा?”
“और आपके रहने के लिए जो नया घर बनाने की बात थी, उसका क्या हुआ?”
छोटू बाबू के इस प्रश्न का जवाब देते हुए पाठक जी लड़खड़ा गए, “क्या कहूँ! बोला – पहले किराये का मकान तो बनने दीजिए!”
“मतलब, मामला गड़बड़ है।” शिवनाथ बाबू का कहना था। छोटू बाबू ने पूछा, “जमीन की रजिस्ट्री तो पिछली बार ही आपने कर दी थी?”
पाठक जी भुनभुनाते हुए बोले, “हाँ, कर दी थी। समर कहता था, जमीन जब तक उसके नाम से नहीं होगी, बैंक से कर्ज नहीं मिलेगा।”
शिवनाथ बाबू मामले की गम्भीरता को समझ रहे थे, “सबसे बड़ी बात यह है कि पाठक जी को जो चार हजार रुपये हर महीने मिलते थे, अब नहीं मिलेंगे। चिन्ता की बात यही है। समर दस हजार देकर गया है। कितने दिन चलेंगे दस हजार? वृद्धावस्था पेंशन भी नहीं मिल रही है छह-सात महीने से। पहले बी.पी.एल. में सब्सिडी रेट पर चावल मिलता था, देखता हूँ, वह भी बन्द है।”
“दवा-दारू का भी खर्च है न छोटू बाबू!” पाठक जी सामने कोका नदी के बलुआही किनारों को देखने लगे।
तभी पहुँच गए राजाराम महतो। सबने लगभग एक साथ कहा, “आइए-आइए महतो जी! कहाँ अटक गए थे?”
छोटू बाबू ने पूछा, “क्या समाचार लाए हैं गाँव-घर का?”
राजाराम महतो ने उत्तर देने की जगह प्रतिप्रश्न किया, “चन्द्रानन शर्मा को जानते हैं – प्रोफेसर चन्द्रानन शर्मा?”
“कौन चन्द्रानन शर्मा?” शिवनाथ बाबू ऊपर बरगद की झंखाड़ डालियों को देखने लगे। कुछ याद करते हुए पूछा, “कहीं आप भूमिहार टोले के चन्द्रानन शर्मा की बात तो नहीं कर रहे जिन्होंने मुजफ्फ़रपुर में दूसरी शादी कर ली और गाँव कभी नहीं लौटे?”
“हाँ, वही। वही चन्द्रानन शर्मा।”
“क्या हुआ उनका?” शिवनाथ बाबू के इस प्रश्न पर सब उत्तर की जिज्ञासा में राजाराम महतो का चेहरा देखने लगे।
भूमिहार टोला शिवनाथ बाबू की रजपुताही से सटा हुआ है। शिवनाथ बाबू उस टोले के एक-एक व्यक्ति को जानते हैं।
छोटू बाबू ने पूछा, “बात क्या है महतो जी! अचानक कहाँ से आ गया यह प्रसंग?”
पाठक जी कुछ याद करते हुए बोले, “याद आ रहा है उनका चेहरा। उमर तो उनकी भी साठ-पैंसठ की हो गई होगी! आपने चन्द्रानन शर्मा की बात शुरू की है, आप ही बताइए, क्या हुआ है।”
महतो जी कहने लगे, “कल फारबिसगंज गया था। लौटते समय रेलवे स्टेशन पर रणधीर से मुलाकात हो गई। हम सब एक ही साथ गाँव लौट रहे थे। रणधीर के साथ पैंट-शर्ट पहने एक बूढ़े से व्यक्ति थे। बलराम यादव भी थे। मैंने रणधीर से पूछा, ‘ये तुम्हारे साथ कौन है? यह बैग-अटैची! कहीं से आ रहे हो क्या?’ रणधीर कुछ क्षण चुप रहा। फिर धीरे से बोला, “नहीं पहचानते हैं? मेरे पापा हैं।”
“अच्छा, प्रोफेसर चन्द्रानन शर्मा? वर्षों बाद देख रहा हूँ इनको।”
“रणधीर मुझे प्लेटफार्म की दूसरी तरफ ले गया। गाड़ी आई नहीं थी। धीरे से बोला, ‘पापा को लाने गया था मुजफ्फ़रपुर। बलराम चाचा को साथ कर लिया था। ये स्कूल में पापा के साथी थे। दोनों में दोस्ती थी। इनसे जब-तब पापा की बात होती रहती थी फोन पर। बलराम चाचा को कुछ दिन पहले मुजफ्फ़रपुर से गोपेश शर्मा का, जो वहीं किसी हाई स्कूल में शिक्षक थे, फोन आया कि पापा का दिमाग फिर गया है, कोई देखनेवाला नहीं है, यहाँ से ले जाइए। घर में माँ से कहा कि ऐसी-ऐसी बात है। मैं तो उनको लाना नहीं चाहता था। माँ ने जिद पकड़ ली, खाना-पीना छोड़ दिया।”
“सहरसा लोकल आ गई थी। हम सब गाड़ी में बैठे। मैं चन्द्रानन बाबू की बगल में बैठा था। पूछा, ‘चन्द्रानन बाबू, पहचानते हैं मुझे?’
‘हाँ।’
‘क्या नाम है मेरा?’ वे मुझे गौर से देखने लगे। उनकी आँखें सामान्य-जैसी नहीं लगीं। भौहें चढ़ी हुई थीं। वे एकटक मुझे देख रहे थे। मैंने अपनी यहाँ की बोली में पूछा, ‘चीन्है छऽ?’ उन्होंने धीरे से जवाब दिया, ‘राजाराम बाबू!’
‘आप तो बिलकुल भूल ही गए हम लोगों को चन्द्रानन बाबू!’
मेरी इस बात पर वे कुछ बोले नहीं...।
“मुजफ्फरपुर ज्यादा दूर नहीं है यहाँ से। समस्तीपुर में गाड़ी बदलनी पड़ती है। इस गाँव के दो-तीन लोग काफ़ी पहले से वहाँ रहते हैं। एक तो बालू के ठेकेदार राम सिंह हैं। दूसरे मास्टर साहब हैं गोपेश शर्मा, जो सर्वोदय हाई स्कूल में विज्ञान-शिक्षक थे, अब रिटायर हो चुके हैं। जब-तब गाँव आते हैं। जमीन-जायदाद है उनकी यहाँ। यहीं के स्कूल से मैट्रिक पास किया था। बलराम यादव से उनकी चिट्ठी-पत्री होती थी। इस बार बलराम यादव को ही उनका फोन मिला कि चन्द्रानन शर्मा का माथा फिर गया है, ले जाइए। यहाँ उनके परिवार में कोई नहीं हैं।”
छोटू बाबू ने पूछा, “लगता है, बीस-पच्चीस साल बाद गाँव आए हैं चन्द्रानन शर्मा।”
“आए कहाँ हैं, लाए गए हैं। रणधीर बलराम यादव को साथ लेकर उनको लाने गया था।” राजाराम जी बोले।
शिवनाथ बाबू मुस्कराए, “ये जो प्रोफेसर साहब हैं, समझिए, ये भी समरेश पाठक ही हैं। वर्षों बाद गाँव आए हैं।”
राजगंज-मधुरा के लोग ही नहीं, इलाके के पुराने कई लोग जानते हैं चन्द्रानन शर्मा को। यह भी जानते हैं कि कैसे उन्होंने मुजफ्फ़रपुर के एक धनी ट्रांसपोर्टर की पुत्री से शादी की। सूत्र तो जुड़े हुए थे न मुजफ्फ़रपुर से! बालू ठेकेदार यहीं के थे, गोपेश शर्मा तो भूमिहार टोले के ही थे। सारा वृत्तान्त गोपेश शर्मा ने सुनाया था। राँची से हिन्दी में पी-एच.डी. करके चन्द्रानन बाबू मुजफ्फ़रपुर के एक नामी कॉलेज में व्याख्याता बनकर गए थे। शुरू-शुरू में वे गोपेश शर्मा के यहाँ महीने-डेढ़ महीने रहे। गोपेश शर्मा ने ही ट्रांसपोर्टर बलवन्त सिंह से चन्द्रानन बाबू का परिचय कराया। बलवन्त सिंह की एकमात्र पुत्री अनामिका हिन्दी ऑनर्स लेकर बी.ए. कर रही थी। उनको ऐसे ट्यूटर की जरूरत थी जो घर आकर पढ़ा सके। संयोग से अपनी ही बिरादरी के मिल गए प्रोफेसर चन्द्रानन शर्मा। बाद में बलवन्त सिंह के बड़े-से मकान में उनको रहने की जगह भी मिल गई।
प्रोफेसर चन्द्रानन शर्मा ने यह नहीं बताया कि वे विवाहित हैं और उनका एक पुत्र भी है। अनामिका को पढ़ाते-पढ़ाते उनकी निकटता बढ़ी और मामला शादी तक पहुँच गया। बलवन्त सिंह को कोई पुत्र नहीं था। एक यही पुत्री थी अनामिका। पुकारने का नाम अन्नो।... अन्नो! अनामिका सिंह।
शादी होने के बाद बलवन्त सिंह को चन्द्रानन शर्मा के विवाहित होने का पता चला। बलवन्त सिंह किसी भी सीमा तक जा सकते थे। अनामिका ने पिता को धमकी दी – यदि कुछ भी प्रोफेसर साहब के विरुद्ध किया गया तो वे जहर खा लेंगी...।
ये सारी बातें हाई स्कूल के शिक्षक गोपेश शर्मा के माध्यम से लोगों तक पहुंचीं।
बलवन्त बाबू ने सब भूल-भालकर अपने दो नातियों और एक नातिन को सर्वोत्तम शिक्षा देने में कुछ उठा नहीं रखा। एक प्रोफेसर की हैसियत नहीं थी कि आरम्भिक शिक्षा के लिए अपने दो बेटों और एक बेटी को देहरादून भेजते।
आज प्रोफेसर चन्द्रानन शर्मा के दो बेटे अमेरिका में हैं। बेटी लन्दन में डॉक्टर है...।
बटचौपाल में यही चर्चा होती रही। शिवनाथ बाबू ने बलराम यादव के हवाले से बताया कि चन्द्रानन बाबू न कभी अमेरिका बेटों के पास गए, न लन्दन अपनी बेटी के पास। बेटी वन्दना ने किसी बंगाली डॉक्टर से शादी की। इसी तरह बड़े बेटे राजेश और उससे छोटे मिथिलेश ने भी अपनी मर्जी से शादी की। राजेश कैलिफोर्निया में सॉफ्टवेयर इंजीनियर है। मिथिलेश टेक्सास में किसी अमेरिकी कम्पनी में काम करता है।
नाना बलवन्त सिंह और माता-पिता का अरमान ही रह गया कि किसी सन्तान की शादी कराते। छोटू बाबू ने पूछा, “महतो जी, यह बताइए कि चन्द्रानन बाबू की दूसरी पत्नी उनके साथ थी तो क्यों कहा गया कि चन्द्रानन बाबू अकेले थे?”
“पत्नी साथ नहीं थी लम्बे समय से। बेटी वन्दना ने माँ को यह कहकर लन्दन बुलाया कि उसकी ‘डिलीवरी’ होनेवाली है। पासपोर्ट, वीसा आदि की व्यवस्था वन्दना के देवर ने की। देवर पटना में रहते हैं। गांधी मैदान के पास उनका पासपोर्ट दफ्तर है।”
लन्दन में वन्दना के साथ रह रही माँ को कैलिफोर्निया में रहनेवाले बड़े बेटे राजेश ने अपने पास बुला लिया। वीसा आदि की व्यवस्था राजेश ने की। राजेश की पत्नी की ‘डिलीवरी’ थी। ढाई साल माँ वहीं रही। फिर दूसरे बेटे मिथिलेश ने माँ को अपने पास टेक्सास बुला लिया। उसका भी माँ पर हक था और उसे भी घर के काम-काज के लिए माँ की जरूरत थी।
छोटू बाबू स्वगत कथन की शैली में बोले, “बेटी-बेटों ने माँ को अपने पास बुला लिया, पिता को नहीं पूछा।”
शिवनाथ बाबू बोले, “पिता की क्या जरूरत थी बेटी को या बेटों को? क्या काम कर सकते थे वहाँ चन्द्रानन बाबू? माँ तो मुफ्त की नौकरानी थी। ऐसी नौकरानी कहाँ मिल सकती थी – बिना पैसे की विश्वसनीय नौकरानी! माँ के पास फोन भी नहीं था। बेटा राजेश या मिथिलेश कभी-कभार पिता से माँ की बात करवा देते। माँ रोने लगती।
राजाराम महतो बोले, “मतलब यह कि दोनों बेटों ने माँ को कैद कर रखा था। माँ छटपटाती थी पति के लिए। मिथिलेश कहता, ‘पापा मजे में हैं माँ।”
शिवनाथ बाबू बोले, “जब मुफ्त की नौकरानी मिल गई थी तो क्यों छोड़ते माँ को!” इस पूरे प्रसंग को समेटते हुए शिवनाथ बाबू ने कहा, “इसी बीच चन्द्रानन बाबू का दिमाग खराब हुआ होगा। कॉलेज से रिटायर भी हो गए थे। एक नौकरानी थी। उनका खाना-वाना बनाती थी। झाडू-पोंछा करती थी। पिछले साल गोपेश शर्मा गाँव आए थे। उन्होंने बताया था – चन्द्रानन बाबू का मकान ऐसा लगता है, जैसे इसमें कोई नहीं रहता! एकदम सुनसान-वीरान। चारों तरफ जंगली झाड़ियाँ फैली हुई हैं। दरकी दीवारों पर पीपल-बरगद के पौधे उग आए हैं। उसी भुतहा जैसे मकान में अकेले, बिलकुल अकेले रहते हैं चन्द्रानन बाबू।”
“सोचिए, जिनके दो बेटे अमेरिका में हों, बेटी लन्दन में डॉक्टर हो, उनके पिता का यह हाल है! आदमी पागल नहीं होगा तो क्या होगा?” छोटू बाबू ने यह बात जैसे स्वयं से कही।
बटचौपाल आज कुछ ज्यादा देर तक चला। शाम हो गई। अब सवाल लौटने का था। सबसे ज्यादा दिक्कत होती है पाठक जी को। छोटू बाबू ने पाठक जी से कहा, “मैं आपको घर तक पहुँचा दूँगा पाठक जी।”
शिवनाथ बाबू को लेने उनका पोता बाइक लेकर आ गया था। परेशानी थी तो राजाराम महतो को। इधर वे कुछ ज्यादा ही परेशान हैं। डॉक्टर ने हार्ट की बीमारी बताई है। बाई बाँह में दर्द रहता है, कभी-कभी सीने में भी दर्द महसूस होता है, ब्लड प्रेशर हाई रहता है। चलते-चलते बेचैनी होने लगती है। छोटू बाबू ने राजाराम जी से कहा, “महतो जी, तिकोनियाँ मोड़ पर रिक्शा मिल जाएगा। पैसे मत बचाइएगा। रिक्शे से घर जाइएगा।”
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