धर्मवीर भारती के उपन्यास गुनाहों का देवता का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
अगस्त की उदास शाम थी, पानी रिमझिमा रहा था और डॉक्टर शुक्ला के सूने बँगले में बरामदे में कुर्सी डाले, लॉन पर छोटे-छोटे गड्ढों में पंख धोती और कुलेलें करती हुई गौरैयों की तरफ अपलक देखता हुआ चन्दर जाने किन खयालों में डूबा हुआ था। डॉक्टर साहब सुधा को लिवाने के लिए शाहजहाँपुर गये थे। बिनती भी जिद करके उनके साथ गयी थी। वहाँ से ये लोग दिल्ली घूमने के लिए चले गये थे लेकिन आज पन्द्रह रोज हो गये उन लोगों का कोई भी खत नहीं आया था। डॉक्टर साहब ने ब्यूरो को महज एक अर्जी भेज दी थी। चन्दर को डॉक्टर साहब के जाने के पहले ही कॉलेज में जगह मिल गयी थी और उसने क्लास लेने शुरू कर दिये थे। वह अब इसी बँगले में आ गया था। सुबह तो क्लास के पाठ की तैयारी करने और नोट्स बनाने में कट जाती थी, दोपहर कॉलेज में कट जाती थी लेकिन शामें बड़ी उदास गुजरती थीं और फिर पन्द्रह दिन से सुधा का कोई भी खत नहीं आया। वह उदास बैठा सोच रहा था।
लेकिन यह उदासी थी, दुख नहीं था। और वह भी उदासी, एक देवता की उदासी जो दुख भरी न होकर सुन्दर और सुकुमार अधिक होती है। एक बात जरूर थी। जब कभी वह उदास होता था तो जाने क्यों वह यह हमेशा सोचने लगता था कि उसके जीवन में जो कुछ हो गया है उस पर उसे गर्व करना चाहिए जैसे वह अपनी उदासी को अपने गर्व से मिटाने का प्रयास करता था। लेकिन इस वक्त एक बात रह-रहकर उभर आती थी उसके मन में, ‘सुधा ने खत क्यों नहीं लिखा?’
पानी बिल्कुल बन्द हो गया था। पश्चिम के दो-एक बादल खुल गये थे। और पके जामुन के रंग के एक बहुत बड़े बादल के पीछे से डूबते हुए सूरज की उदास किरणें झाँक रही थीं। इधर की ओर एक इन्द्रधनुष खिल गया था जो मोटर गैरेज की छत से उठकर दूर पर युक्लिप्टस की लम्बी शाखों में उलझ गया था।
इतने में छाता लगाये पोस्टमैन आया, उसने पोर्टिको में अपने जूतों में लगी कीचड़ झाड़ी, पैर पटके और किरमिच के झोले से खत निकाले और सीढ़ी पर फैला दिये। उनमें से ढूँढ़कर तीन लिफाफे निकाले और चन्दर को दे दिये। चन्दर ने लपककर लिफाफे ले लिये। पहला लिफाफा बुआ का था बिनती के नाम, दूसरा था ओरियंटल इन्श्योरेन्स का लिफाफा डॉक्टर साहब के नाम और तीसरा एक सुन्दर-सा नीला लिफाफा। यह सुधा का होगा। पोस्टमैन जा चुका था। उसने इतने प्यार से लिफाफे को चूमा जितने प्यार से डूबता हुआ सूरज नीली घटाओं को चूम रहा था। “पगली कहीं की! परेशान कर डालती है। यहाँ थी तो वही आदत, वहाँ है तो वही आदत!” चन्दर ने मन में कहा और लिफाफा खोल डाला।
लिफाफा पम्मी का था, मसूरी से आया। उसने झल्लाकर लिफाफा फेंक दिया। सुधा कितनी लापरवाह है। वह जानती है कि चन्दर को यहाँ कैसा लग रहा होगा। बिनती ने बता दिया होगा फिर भी वही लापरवाही! मारे गुस्से के...
थोड़ी देर बाद उसने पम्मी का खत पढ़ा। छोटा-सा खत था। पम्मी अभी मसूरी में ही है, अक्टूबर तक आएगी। लगभग सभी यात्री जा चुके हैं लेकिन उसे पहाड़ों की बरसात बहुत अच्छी लग रही है। बर्टी इलाहाबाद चला गया है। उसके साथ वहाँ से एक पहाड़ी ईसाई लड़की भी गयी है। बर्टी कहता है कि वह उसके साथ शादी करेगा। बर्टी अब बहुत स्वस्थ है। चन्दर चाहे तो जाकर बर्टी से मिल ले।
सुधा के खत के न आने से चन्दर के मन में बहुत बेचैनी थी। उसे ठीक से मालूम नहीं हो पा रहा था कि ये लोग हैं कहाँ? बर्टी के आने की खबर मिलने पर उसे सन्तोष हुआ, चलो एक दिन बर्टी से ही मिल आएँगे, अब देखें कैसे हैं वह?
तीसरे या चौथे दिन जब अकस्मात् पानी बन्द था तो वह कार लेकर बर्टी के यहाँ गया। बरसात में इलाहाबाद की सिविल लाइन्स का सौन्दर्य और भी निखर आता है। रूखे-सूखे फुटपाथों और मैदानों पर घास जम जाती है; बँगले की उजाड़ चहारदीवारियाँ तक हरी-भरी हो जाती हैं। लम्बे और घने पेड़ और झाड़ियाँ निखरकर, धुलकर हरे मखमली रंग की हो जाती हैं और कोलतार की सड़कों पर थोड़ी-थोड़ी पानी की चादर-सी लहरा उठती है जिसमें पेड़ों की हरी छायाएँ बिछ जाती हैं। बँगले में पली हुई बत्तखों के दल सड़क पर चलती हुई मोटरों को रोक लेते हैं और हर बँगले में से रेडियो या ग्रामोफोन के संगीत की लहरें मचलती हुई वातावरण पर छा जाती हैं।
कॉलेज से लौटकर, एक प्याला चाय पीकर, कार लेकर चन्दर बर्टी के यहाँ चल दिया। वह बहुत दिन बाद बर्टी को देखने जा रहा है। जिन व्यक्तियों को उसने अपने जीवन में देखा था, बर्टी शायद उन सभी से निराला था, अद्भुत था। लेकिन कितना अभागा था। नहीं, अभागा नहीं कमजोर था बर्टी। और वही क्या कमजोर था यह सारी दुनिया कितनी कमजोर है।
बर्टी का बँगला आ गया था। वह उतरकर अन्दर गया। बाहर कोई नहीं था। बरामदे में एक पिंजरा टँगा हुआ था जिसमें एक बहुत छोटा तोते का बच्चा टँगा था। चन्दर भीतर जाने में हिचक रहा था क्योंकि एक तो पम्मी नहीं थी और दूसरे कोई और लड़की भी बर्टी के साथ आयी थी, बर्टी की भावी पत्नी। चन्दर ने आवाज दी। अन्दर कोई बहुत भारी पुरुष-स्वर में एक साधारण गीत गा रहा था। चन्दर ने फिर आवाज दी। बर्टी बाहर आया। चन्दर उसे देखकर दंग रह गया, बर्टी का चेहरा भर गया था, जवानी लौट आयी थी, पीलेपन के बजाय चेहरे पर खून दौड़ गया था, सीना उभर आया था। बर्टी खाकी रंग का कोट, बहुत मोटा खाकी हैट, खाकी ब्रिचेज, शिकारी बूट पहने हुए था और कन्धे पर बन्दूक लटक रही थी। वह आया ड्राइंगरूम के दरवाजे पर पीठ झुकाकर एक हाथ से बन्दूक पकड़कर और एक हाथ आँखों के आगे रखकर उसने इस तरह देखा जैसे वह शिकार ढूँढ़ रहा हो। चन्दर के प्राण सूख गये। उसने मन-ही-मन सोचा, पहली बार तो वह कुश्ती में बर्टी से जीत गया था, लेकिन अबकी बार जीतना मुश्किल है। कहाँ बेकार फँसा आकर। उसने घबरायी हुई आवाज में कहा–
“यह मैं हूँ मिस्टर बर्टी, चन्दर कपूर, पम्मी का मित्र!”
“हाँ-हाँ, मैं जानता हूँ।” बर्टी तनकर खड़ा हो गया और हँसकर बोला, “मैं आपको भूला नहीं; मैं तो आपको यह दिखला रहा था कि मैं पागल नहीं हूँ, शिकारी हो गया हूँ।” और उसने चन्दर के कन्धे पकड़कर इतना जोर से झकझोर दिया कि चन्दर की पसलियाँ चरमरा उठीं। “आओ!” उसने चन्दर के कन्धे दबाकर बरामदे की ही कोच पर बिठा दिया और सामने कुर्सी पर बैठता हुआ बोला, “मैं तुम्हें अन्दर ले चलता, लेकिन अन्दर जेनी है और एक मेरा मित्र। दोनों बातें कर रहे हैं। आज जेनी की सालगिरह है। तुम जेनी को जानते हो न? वह तराई के कस्बे में रहती थी। मुझे मिल गयी। बहुत खराब औरत है! मैं तन्दुरुस्त हो गया हूँ न!”
“बहुत, मुझे ताज्जुब है कि तन्दुरुस्ती के लिए तुमने क्या किया तीन महीने तक!”
“नफरत, मिस्टर कपूर! औरतों से नफरत। उससे ज्यादा अच्छा टॉनिक तन्दुरुस्ती के लिए कोई नहीं है।”
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