भगवानदास मोरवाल के उपन्यास काँस का एक अंश, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


लगता है आज सिविल जज इस केस का फ़ैसला सुना ही देगा, ऐसा सारे वकीलों से लेकर वकील नेमचन्द गुप्ता, उमर खाँ, मौज खाँ, उनके साथ आये सरपंच अजमत और नसरू का मानना था। इसलिए सबका ध्यान इस जिज्ञासा को लेकर है कि जज आख़िर इसमें क्या फ़ैसला देगा दादा खैराती की पन्द्रह एकड़ चार बिसवा का मालिकाना हक़ किसे मिलेगा? खैराती परिवार की एकमात्र स्त्री वारिस चाँदबी के नाम उसकी ताई हसनबी द्वारा पंजीकृत किया हिबानामा वैध बना रहेगा, अथवा खैराती के भाई के बेटे उमर खाँ की अपील पर दीवानी अदालत का न्यायाधीश रिवाज़े-आम के आधार पर उमर खाँ के दावे को सही मानते हुए हिबानामा को ख़ारिज करने का आदेश पारित करता है?

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जज के आने और अदालत की कार्यवाही शुरू होने से पहले कोर्ट के अन्दर और गलियारे में तरह-तरह के अनुमान-अंदाज़े लगने शुरू हो गये। कोर्ट रूम में पहले से तैयार वादी-प्रतिवादी अर्थात दोनों पक्षों के वकीलों की नज़र जज के बग़ल में बैठे पेशकार के सामने रखी फ़ाइलों के ढेर पर टिकी हुई है। कानों के पर्दों को एकदम ढीला छोड़ा हुआ है। एक ख़ास किस्म की पोशाक पहने और पेशकार से कुछ दूरी पर उसके निर्देश के इंतज़ार में तैनात प्यादे की हरकत पर नज़रें जमी हुई हैं। वरना ऐसा ना हो कि मुवक्किलों और वकीलों को हाज़िर होने वाली प्यादे की आवाज़ सुनाई न दे। ऐसा कई मामलों में हो चुका है कि प्यादे की आवाज़ कई बार सुनाई नहीं देती है

इस केस की सुनवायी करते हुए जज ने पेशकार को अगली सुनवाई के पक्षकारों को हाज़िर होने का हुक्म दिया और पेशकार ने प्यादे को इन्हें हाज़िर होने का निर्देश दिया। पेशकार के निर्देश पर प्यादा तेज़ी से कोर्ट रूम से बाहर आया और दरवाज़े पर आकर आवाज़ दी, “उमर खाँ-चाँदबी हाज़िर हों!”

इस आवाज़ को सुन कोर्ट रूम से लेकर बाहर गलियारे में खड़े उमर खाँ, मौज खाँ सहित चाँदबी, सरपंच अजमत और नसरू तेज़ी से लपकते हुए अपने-अपने वकीलों के पास आ गये। सबकी धडकनें एकाएक तेज़ हो उठीं।

सिविल जज ने इस बीच उमर खाँ की फ़ाइल के पन्ने पलटने बाद, पहले सामने दायें-बायें खड़े दोनों पक्षों के वकीलों पर एक रहस्यमयी मुस्कान उछाली, जो चाँदबी के वकील पर आकर ठिठक गयी।

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“हाँ जी वकील साब, आपको इस मामले में और कुछ दलील पेश करनी है ?” जज ने पहले चाँदबी के वकील से पूछा।

“जनाब, दलील क्या क़ुरआन, हदीस और शरा के मुताबिक़ मेरे मुवक्किल को उसके जायज़ हक़ से महरूम नहीं किया जा सकता। यह देखिए जनाब, क़ुरआन मजीद में चौथी सूरा अन-निसा की सातवीं आयत में साफ़-साफ़ फ़रमान है कि मर्दों का उस माल में हिस्सा है जो उसके माँ-बाप और नातेदारों ने छोड़ा हो... और औरतों का भी उसमें हिस्सा है जो माँ-बाप और उनके नाते-रिश्तेदारों ने छोड़ा हो, अब चाहे वह थोड़ा हो या ज़्यादा हो...और जनाब यह हिस्सा इस मुल्क के किसी क़ानून ने नहीं हमारे हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने तय कर रखी है।” चाँदबी के वकील हाजी अली मोहम्मद ने बड़े अदब के साथ क़ुरआन के खुले हुए पन्ने को दिखाते हुए दलील दी।

सिविल जज ने खुले पन्ने पर इस तरह सरसरी निगाह मारी जैसे वह कह रहा है कि चाँदबी का वकील हाजी अली मोहम्मद झूठ थोड़े ही बोलेगा।

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चाँदबी के वकील द्वारा पेश की गयी इस दलील से एक हद तक जज को सहमत हुआ देख, हाजी अली मोहम्मद ने क़ुरआन को अपनी ओर खींचा तथा पहले से लगी काग़ज़ की पट्टीवाले पृष्ठ को खोलते हुए बोला, “इतना ही नहीं जनाब, इसी सूरा की दूसरी आयत में चाँदबी जैसी बेबस और यतीम के बारे में फ़रमान दिया हुआ है कि और यतीमों को उनकी दौलत दो और अपनी बुरी चीज़ को उनकी अच्छी चीज़ से ना बदलो। उनके माल को अपने माल के साथ हेरा-फेरी ना करके उसे हड़प लो। अगर ऐसा किया तो यह बहुत बड़ा गुनाह है।”

जज ने जैसे ही हाजी अली मोहम्मद द्वारा पेश की गयी क़ुरआन की इस आयत पर नज़र मारी, वैसे ही इस बार क़ुरआन को वापस अपनी तरफ़ सरका दिया। फिर धीरे-से उमर खाँ के वकील की तरफ़ अपनी गर्दन घुमाई।

गुड़गाँव शहर का सबसे अनुभवी और उमर खाँ के केस की पैरवी करने वाला वकील खूबचन्द गर्ग, सामने डायस पर विराजमान न्यायाधीश द्वारा इस तरह अपनी तरफ़ गर्दन घुमाने का आशय समझ गया। वह धीरे-से बड़े अदब के साथ आगे आया और एक महीन मुस्कान के साथ अपनी दलील पेश करते हुए बोला,“जज साब, ये एकदम सही कह रहे हैं। यह मुझे भी पता है कि क़ुरआन में ऐसा फ़रमाया गया है। लेकिन सवाल यहाँ किसी वेद-पुराण या शरा-हदीस के हुक्म और फ़रमानों का नहीं है। सवाल उस क़ानून का है जो पार्टीशन से पहले 1849 में पंजाब के तत्कालीन गवर्नर जनरल द्वारा पैतृक जायदाद के बँटवारे को लेकर गठित किये गये बोर्ड आफ़ एडमिनिस्ट्रेशन की एक सिफ़ारिश पर बनाया गया है। इस सिफ़ारिश में कहा गया था कि पंजाब स्टेट में बसने वाली किसानी जनजातियों की दादालाई जायदाद के बँटवारे का कोई ऐसा हल निकाला जाए, जिससे इन जातियों में ख़ानदानी रंजिश पैदा ना हो।”

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“तो क्या इस सिफ़ारिश पर कोई अमल हुआ ?”

“हुआ न जज साब। उस समय इस मुश्किल काम की ज़िम्मेदारी लाहौर के न्यायाधीश जस्टिस बोलनोइस, जिसे बाद में हम सब सर डब्ल्यू० एच० रेट्टीगन के नाम से जानते हैं, उनको सौंपा गया। आप जानते होंगे जज साब कि तक़रीबन तीस साल की कड़ी मेहनत के बाद 1880 में उन्होंने जो रिपोर्ट तैयार की, उसमें वे लिखते हैं कि पंजाब स्टेट में बसने वाली ऐसी बहुत-सी किसान जनजातियाँ हैं, जो अपनी पुश्तैनी जायदाद के बँटवारे को लेकर न मुस्लिम क़ानून को मानती हैं, न शास्त्रों में लिखे क़ानून को।”

“यह कहाँ लिखा हुआ है, इसका कोई सबूत है ?” सिविल जज ने उमर खाँ के वकील की आँखों में झाँकते हुए पूछा।

“सबूत है जनाब और पक्का सबूत है।” अपने साथ खड़े वकील नेमचन्द गुप्ता की तरफ़ मुड़ते हुए उमर खाँ के वकील ने उससे एक किताब ली। उसके बीच में लगी काग़ज़ के पट्टीवाले पन्ने को खोला और उसे जज की ओर बढ़ाते हुए बोला,”जज साब, सर डब्ल्यू० एच० रेट्टीगन की इस किताब ‘कस्टमरी लॉ ऑफ़ पंजाब’ में दर्ज है यह सब।”

सिविल जज देर तक बड़े ध्यान से उस पन्ने को पढ़ने लगा। फिर कुछ देर बाद सोचते हुए बोला,”यह सही है कि मेव कौम पंजाब की खेतिहर जनजातियों में आती होगी...”

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“आती होगी नहीं जज साब, आती है l” अपनी दलील पर अडिग रह वकील खूबचन्द गर्ग।

“चलिए, मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ। मैं अब यहाँ दूसरी बात जानना चाहता हूँ और वो यह कि ऐसा कोई और सबूत है जिससे पता चल सके कि मेव कौम को किसी और स्टेट में भी जनजाति माना जाता हो?”

“जी जनाब, उत्तर प्रदेश के कुछ जिलों जैसे अलीगढ़, बुलन्दशहर; राजस्थान की अलवर और भरतपुर रियासतों में इन्हें जनजाति माना गया है l यह देखिए, मेरे पास यू. पी. डिस्चार्ज्ड प्रिज़नर्स एंड सोसाइटी के भूतपूर्व और पब्लिक सर्विस कमीशन, यू. पी. के चेयरमैन रहे गोपीचन्द श्रीवास्तव की यह किताब है। जज साब, इसमें मेवों को जनजाति ही नहीं कहा गया है बल्कि एक अपराधी कौम तक कहा गया है।”

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“आपके कहने का मतलब है क्रिमिनल ट्राइब्स ?”

“जी जज साब।”

सिविल जज के लिए एकदम नयी जानकारी है कि मेव जाति को भी कभी अपराधी जनजातियों में भी शामिल किया गया है l जज ने किताब को उलट-पुलट कर देखा और फिर मुस्कराते हुए कहा,”इसका मतलब है यह तो बड़ी लड़ाका कौम रही है।”

“जनाब इतनी लड़ाका और बहादुर कौम रही है यह कि एक ज़माने में शाम होते ही दिल्ली के दरवाज़े बन्द हो जाया करते थे।”

“वकील साब, तो क्या कस्टमरी लॉ इस देश की पूरी मेव कौम पर लागू होता है ?” सिविल जज एक बार फिर मुद्दे पर आते हुए बोला।

“नहीं जज साब। यह सिर्फ़ पार्टीशन से पहले के पंजाब स्टेट में आने वाले जिलों के मेवों में लागू होता है...और आप तो जानते ही हैं यह गुड़गाँवा जिला इस समय पंजाब स्टेट का हिस्सा है, तो ज़ाहिर है कस्टमरी लॉ इसी जिले के मेवों में लागू होता है।”

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“ठीक है।” इसके बाद सिविल जज ने एक फिर चाँदबी के वकील हाजी अली मोहम्मद की तरफ़ देखा,” हाँ जी वकील साब, एक बात बताइये कि जब चाँदबी की ताई ने अपनी भतीजी के नाम हिबानामा कराया रजिस्टर्ड था, तब क्या उसने अपने कुनबे के, मेरा मतलब है अपने मरहूम शौहर के मर्द हक़दारों, जैसे रिवाज़े-आम में शर्त है, उनसे कोई इजाज़त ली थी।”

“जनाब, इस जायदाद की मालिक चाँदबी के वालिद के इंतिक़ाल के बाद पहले इसकी माँ रसूलन थी, जब इसकी माँ का भी इंतिक़ाल हो गया तो उसकी विरासत इसके ताऊ नवाज खाँ के नाम चली गयी। नवाज खाँ के मरने के बाद जब उसकी जायदाद उसकी बीवी हसनबी के नाम चली गयी, तो हसनबी ने उस जायदाद को हिबानामा के रूप में खैराती परिवार की अकेली वारिस होने के नाते अपनी इस भतीजी चाँदबी के नाम रजिस्टर्ड करा दिया। ऐसे में इसके लिए किसी से इजाज़त लेने की क्या ज़रूरत थी। वैसे भी मुस्लिम क़ानून के मुताबिक़ किसी भी तरह की जायदाद को तोहफ़े के तौर पर दिया जा सकता है।”