इरफ़ान हबीब की किताब भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन और राष्ट्रवाद का एक अंश, रमेश रावत द्वारा अनुवादित , वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
“राष्ट्र” एक आधुनिक अवधारणा है। जॉन स्टुअर्ट मिल से लेकर स्टालिन तक कई लेखकों द्वारा इस शब्द की विभिन्न परिभाषाएँ दी गयी हैं। इन परिभाषाओं में एक समान तत्त्व है; राष्ट्र होने के लिए एक देश अथवा क्षेत्र के द्वारा एक पृथक् राजनीतिक इकाई के रूप में देखा जाना आवश्यक है जहाँ की जनता के पास या तो एक सम्प्रभु राज्य है अथवा उसे स्थापित करने की महत्त्वाकांक्षा है। अंग्रेज़ों में “राष्ट्र” (नेशन) शब्द का अर्थ एक समय में व्यक्तियों का एक वर्ग अथवा समुदाय हुआ करता था। जहाँ तक स्पष्ट है, राष्ट्र को उसका मौजूदा भाव तब प्राप्त हुआ जब फ़्रांसीसी क्रान्ति (1789-94) ने यूरोप में राष्ट्रों की स्वतन्त्रता के लिए आह्वान किया। इस समय यूरोपीय महाद्वीप पर रूस तथा पवित्र रोमन साम्राज्य जैसे राजतन्त्रीय राज्यों और साम्राज्यों का प्रभुत्व था।
उन्नीसवीं शताब्दी में यूरोप में आधुनिक श्रमिक वर्ग आन्दोलन की शुरुआत हुई। उस समय स्वाभाविक रूप से एक तीव्र इच्छा उत्पन्न हुई कि “सभी देशों” के श्रमिकों को अपनी राष्ट्रीय सीमाओं के परे एकजुट होने की आवश्यकता है (यह कम्युनिस्ट मैनिफ़ेस्टो, 1848 का नारा था)। यह स्वाभाविक था कि श्रमिक वर्ग आन्दोलन में ‘राष्ट्र’ को एक विभाजक कारक मानते हुए उसके प्रति सन्देह की भावना उत्पन्न हुई। शास्त्रीय मार्क्सवादी प्रयोग में “राष्ट्रवाद” को हमेशा एक आलोचनात्मक नज़र से देखा जाता था जो एक क्षेत्र अथवा देश के लोगों को अन्य क्षेत्र अथवा देश के लोगों के विरुद्ध करता था। लेनिन ने इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। लेनिन ने यह घोषित किया कि “राष्ट्रीय आत्मनिर्णय” एक लोकप्रिय और न्यायसंगत हक़दारी थी जिसके माध्यम से श्रमिक वर्ग की एकजुटता की भावना को एक पृथक् राष्ट्रीय-राज्य के निर्माण की भावना के साथ जोड़ने की आवश्यकता थी। फिर भी, जिस विवाद के सन्दर्भ में लेनिन का पर्चा आया था, हमें वह याद रखने की आवश्यकता है।
यूरोप की परिस्थिति बहस के दोनों पक्षधरों के दिमाग़ में थी जहाँ राजनीतिक सीमाएँ भाषायी क्षेत्रों अथवा राष्ट्रीयताओं के बीच से गुज़रती थी। जर्मनी और इटली का एकीकरण हाल की घटनाएँ थीं। ऑस्ट्रिया-हंगरी और रूस की सीमाओं में अभी तक विविध राष्ट्रीयताओं का वास था। इस परिस्थिति ने एक राष्ट्रीयता द्वारा दूसरी राष्ट्रीयताओं पर प्रभुत्व के हालात बना दिये थे। फिर भी, श्रमिक वर्ग के संघर्ष को किसी भी हालत में किसी एक राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता द्वारा किसी अन्य राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता के विरुद्ध संघर्ष से कम महत्त्व का नहीं माना गया। दूसरे शब्दों में, एक औपनिवेशिक परिस्थिति-जहाँ एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र अथवा राष्ट्रों के समूह पर अधिकार रखता है और उसका शोषण करता है, पर इस विवाद में कोई ध्यान नहीं दिया गया था।
यूरोप और उत्तर अमेरिका के बाहर के जीवन का एक महत्त्वपूर्ण तथ्य यह रहा था कि विश्व के बचे हुए हिस्सों पर औपनिवेशिक शक्तियों का प्रभुत्व था। इसी कारण यहाँ प्रमुख अन्तर्विरोध औपनिवेशिक शक्ति और उसके उपनिवेश (कॉलोनी) के मध्य ही रहा। और इसी कारण उपनिवेश-विरोधी संघर्ष की प्रमुख आवश्यकता यह रही की ग़ुलाम बनाये गये अथवा आश्रित लोगों का छोटे तथा पृथक् क्षेत्रों में पुनः विभाजन न हो। अगर ऐसा होता तो औपनिवेशिक विजय की प्राप्ति और औपनिवेशिक पराधीनता को क़ायम रखना बहुत आसान होता। भारत ने इसका एक उदाहरण प्रस्तुत किया। भारत को 18वीं शताब्दी में कई राज्यों में विभाजित किया गया था और ब्रिटिश द्वारा इन राज्यों को एक-एक करते हुए अधीनता और विलोपन का सामना करना पड़ा था। अपनी औसत माँगों के बावजूद भी भारतीय मध्यम वर्ग ने यह मान लिया कि औपनिवेशिक स्वामियों के समक्ष उनकी शिकायतों को सुनने के लिए प्रान्तीय स्तर के संगठन काफ़ी नहीं थे। साथ ही उन्होंने यह माना कि एक अखिल भारतीय प्रयास की आवश्यकता है। इस कारण 1885 में बम्बई में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना हुई। यहाँ ‘राष्ट्रीय’ शब्द का प्रयोग ख़ास ध्यान देने लायक़ है। “राष्ट्रीय” शब्द के प्रयोग से इस बात पर बल दिया गया कि भारत एक “राष्ट्र” है।
इसी समय पश्चिम की औपनिवेशिक शक्तियों का विरोध करने के लिए जमालुद्दीन अफ़ग़ानी “अखिल इस्लामवाद” (पैन इस्लामिज़्म) का नारा देते हुए पश्चिम एशिया के मुस्लिम देशों से एकजुट होने का अनुरोध कर रहे थे। यह नारा अवास्तविक सिद्ध हुआ, लेकिन यह इस बात पर बल देने के कारण महत्त्वपूर्ण रहा कि छोटे राज्यों की मौजूदगी ने औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा प्रभुत्व के आरोपण को बहुत सुगम बना दिया। चीन का मामला और अधिक प्रासंगिक रहा। यहाँ स्थानीय उपभाषाओं और बोलचाल की भाषाओं के बाहुल्य के बावजूद चीनी लोगों में एकता का एक प्रबल बोध था। यह एक प्रमुख कारण रहा कि औपनिवेशिक शक्तियों को चीन पर 1840-60 के अफ़ीम युद्ध और 1911 के रिपब्लिकन क्रान्ति के बीच केवल सीमित प्रभुत्व ही प्राप्त हुआ था। इस क्रान्ति के बाद औपनिवेशिक शक्तियों ने प्रान्तीय ‘युद्ध सामन्तों’ को चीन की राजनीतिक एकता नष्ट करने और अपने प्रभाव क्षेत्र का पुनःस्थापन करने के लिए प्रोत्साहित करना आरम्भ किया।
भारत के मामले में यह स्पष्ट था कि यदि भारतीय क्षेत्रीय और धार्मिक आधार पर आपस में विभाजित रहेंगे, तो ब्रिटिश शासकों को लाभ मिलेगा। इसलिए दिसम्बर 1887 में लखनऊ में सैयद अहमद ख़ान को एक असंयमी भाषण के दौरान बंगाली प्रभुत्व के हौवे को उठाने का प्रोत्साहन मिला। इस हौवे के विरोध में उत्तर भारतीय, हिन्दू और विशेष रूप से मुसलमान भद्र लोगों को एकजुट करने का प्रयास हुआ। इसके बाद 1905 के बंगाल विभाजन और 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधार (जो पृथक् साम्प्रदायिक निर्वाचक मण्डल लाया था) को हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने के लिए बनाया गया। साथ ही क्षेत्रीय भिन्नताओं को उत्तेजित करने की नीति को भी जारी रखा गया।
इसी कालावधि में 1909 में राष्ट्र के रूप में भारत पर अपनी राय देते हुए मोहनदास करमचन्द गाँधी ने हिन्द स्वराज प्रकाशित किया। इंग्लैंड में अपने तीन वर्ष के अल्पवास (1888-91) के दौरान गाँधी का ध्यान अपने लोगों के संकटों के बजाय शाकाहारवाद और धर्म पर अधिक था। हालाँकि वे कहते हैं कि वे भारतीय राष्ट्रवाद के “वयोवृद्ध पुरुष” दादाभाई नौरोजी के सभी सार्वजनिक भाषणों में उपस्थित रहे। गाँधी का राजनीतिक दृष्टिकोण वास्तव में उस समय विकसित हुआ जब वे 1893 में एक व्यावसायिक कम्पनी की ओर से वकील के रूप में दक्षिण अफ़्रीका पहुँचे। दक्षिण अफ़्रीका अपनी स्थानीय श्वेत आबादी द्वारा कठोर नस्लीय सिद्धान्त के आधार पर शासित होने वाला एक देश था। सभी भारतीयों के साथ एक पृथक् नस्ल के रूप में व्यवहार किया जाता था। चाहे वे गुज़रात से आये हों, तमिलनाडु से अथवा बिहार से, चाहे वे हिन्दू हों या मुसलमान, उन सबको अलग-अलग तरीक़े के भेदभाव का सामना करना पड़ता था। यह तर्क दिया जा सकता है कि उत्पीड़क द्वारा एक साथ एक समूह में होने के कारण विभिन्न भाषायी तथा क्षेत्रीय पृष्ठभूमि के भारतीयों में एकता की संवेदना उत्पन्न हो सकती है। यह स्पष्ट है कि आयरिश प्रतिमान पर आधारित ‘निष्क्रिय प्रतिरोध’ हेतु लोगों को एकजुट करने के गाँधी के प्रतापी प्रयास इस पूर्वधारणा पर आधारित थे कि सभी एक बन्धुत्व का हिस्सा थे। धार्मिक असमानता को विशेष रूप से दूर रखने की आवश्यकता थी। आरम्भिक पड़ावों में गाँधी के अधिकांश समर्थक (और आन्दोलन के वित्त-पोषक) गुज़राती मुस्लिम सेठ रहे थे। यह अनुभव निश्चित ही उनके मन में रहा होगा जब वे दक्षिण अफ़्रीकी संघर्ष के बीच में भारत पर अपना घोषणा-पत्रा लिखने बैठे होंगे। यह घोषणा-पत्र, हिन्द स्वराज, 1909 में अटलांटिक के रास्ते उनके सफर के दौरान लिखा गया था।
गाँधी ने हिन्द स्वराज में भारत के उर्दू नाम का प्रयोग किया था (‘भारत’ की जगह ‘हिन्द’)। इस मूल ग्रन्थ का नाम ही गाँधी की उस सावधानी को दर्शाता है जो उन्होंने यह सुनिश्चित करने के लिए बरता कि ‘इंडिया’ को किसी एक विशेष परम्परा मात्र के साथ जोड़कर न देखा जाये। इसके अतिरिक्त उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि भारतीय राष्ट्र किसी एक धर्म से जुड़ा हुआ नहीं है। उन्होंने लिखा –
“हिन्दुस्तान में चाहे विभिन्न धर्म के लोग निवास करें, यह राष्ट्र उस कारण मिटने वाला नहीं है ...अगर हिन्दू यह मानकर चलें कि सारा हिन्दुस्तान केवल हिन्दुओं से ही भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना होगा। हिन्दू, मुसलमान, पारसी और ईसाई, सभी इस देश के वासी हैं और उन्हें एकजुट होकर रहना होगा...विश्व के किसी भी हिस्से में एक राष्ट्र को एक धर्म का पर्याय नहीं माना गया है और हिन्दुस्तान में भी ऐसा नहीं हुआ।”
फिर भी, हिन्द स्वराज में राष्ट्र के प्रति अपने दृष्टिकोण के आधार पर गाँधीजी धर्मनिरपेक्ष नहीं थे। उनका मानना था कि एक ऐसा धर्म है जो ‘सभी धर्मों का आधार’ है। इसलिए उनका मानना था कि विद्यालयों में पारम्परिक शिक्षा ‘मुल्लाओं, (पारसी) दस्तूरों और ब्राह्मणों’ द्वारा इसी क्रम में दी जानी चाहिए। इसका यह भी अर्थ था कि समुदायों के बीच इस बात पर लड़ाई नहीं होनी चाहिए कि किसे क्या इनायत मिली है। इसी कारण उन्होंने ऐसे हिन्दुओं की निन्दा की जो 1909 के मॉर्ले-मिंटो सुधार में मुसलमानों को मिली रियायतों का विरोध कर रहे थे। यह सब राष्ट्रवाद के उस स्वरूप के अनुकूल माना जा सकता है जिसकी वकालत गोखले के नेतृत्व में काँग्रेस के नरम-दल के पक्षधर करते रहे थे। गाँधी अक्सर गोखले को अपना गुरु भी कहते थे।
लेकिन हिन्द स्वराज में राष्ट्र की परिकल्पना में और कुछ भी ऐसा नहीं था जिसे गोखले अपना मानते। आरम्भिक भाग में गाँधी यह दिखाते हैं कि किस प्रकार ब्रिटिश शासन ने ख़िराज (ट्रिब्यूट) ऐंठने और मुक्त व्यापार आरोपित करने के माध्यम से भारत को आर्थिक रूप से नष्ट किया और दरिद्र बनाया। यह दिखाते हुए गाँधी दादाभाई नौरोजी और रोमेश दत्त की सेवाओं का आभार स्वीकार करते हैं, लेकिन एक बार जब गाँधी उस मुक़ाम पर पहुँच गये जहाँ स्वराज की प्राप्ति दृष्टिगत होने लगी, भारत की ग़रीबी की चिन्ता ग़ायब-सी हो गयी। इसके विपरीत, ग़रीबी का अब महिमामण्डन होने लगा। रेल, उद्योग, महिला रोज़गार, आधुनिक शिक्षा और आधुनिक चिकित्सा जैसी हर उस चीज़ की आधुनिक सभ्यता की अस्वीकार्य बुराइयों के रूप में निन्दा होने लगी जिनका स्वराजोत्तर भारत में कोई स्थान नहीं हो सकता था। आधुनिक संस्थानों और मूल्यों की थोक में हो रही निन्दा के समर्थन में गाँधी के पास केवल टॉलस्टॉय द्वारा औद्योगीकृत समाज की नैतिक विफलता की आलोचना और रस्किन द्वारा इसकी सामाजिक असमानताओं की आलोचना का ही सहारा था। गाँधी ने इन आलोचनाओं में इस दावे को जोड़ दिया कि पारम्परिक भारत एक लगभग दोषहीन विकल्प प्रस्तावित करता है। “निश्चित उपजीविका” के आधार पर स्थापित जाति व्यवस्था को प्रतिस्पर्धा के विकल्प के रूप में देखा गया। जिसे गाँधी जान-बूझकर आविष्कृत तकनीक के निम्न स्तर पर मानते थे, उसमें वे मशीनों के विकास की सम्भावना और फलस्वरूप आधुनिक उद्योग की बुराइयों का अन्त देखते थे। “मुल्लाओं, दस्तूरों और ब्राह्मणों” द्वारा प्रदान की जाने वाली धार्मिक शिक्षा “आधुनिक शिक्षा” के किसी भी अतिक्रमण को नामुमकिन कर देगी।
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