चन्दन पांडेय की उपन्यास कीर्तीगान का एक अंश, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
अभी जो हम सब अपनी मेहनत के परिणाम की तरह देख-सुन रहे हैं उसे सुनते हुए सरायकेला-खरसावाँ यात्रा में ऐसे वक़्त की याद आ रही है जिस वक़्त में जबर बादल छाए हुए हैं। उन बादलों की आवाज़ में गिर पड़ने की धमकी है। मैं दो-दो स्त्रियों को सामने देखकर ख़ुद पर और ख़ुद की कल्पनाओं पर काबू पाने के लिए जद्दोजहद कर रहा हूँ। सुनंदा और लुकमान की बीवी। लेकिन अपनी हरकत से बादलों ने मेरा ध्यान खींच लिया है और फिर मैं लुकमान के जर्जर घर को देख रहा हूँ।
खपरैल और फूस का बना छज्जा है। छज्जे की हालत ऐसी कि बरसात के पानी को शायद ही घर से बाहर की ओर गिरने देता हो। दीवारों के लिए मिट्टी कम पड़ गई होगी कि उन्हें सीमेंट से नहीं, वह इन्हें कहाँ मिलना, सीमेंट के बोरों और काली पॉलिथीन के टुकड़ों की चिप्पी लगाकर बचाए रखने का क़ायदा अपनाया गया होगा। दीवारें इतनी पतली और बेचैन लग रही हैं जैसे कोई विपत्ति हों और हम पर टूट पड़ना चाहती हों। यहाँ की आबादी इन दीवारों के बीच चैन भी कैसे पाती होगी? इस घर को देखकर मुझे शाइस्ता का घर याद आ रहा है, न जाने वहाँ दीवारों ने क्या योजना बना रखी है, नज़र दौड़ाता हूँ तब इस बस्ती का कमोबेश यही हाल दिखता है, इसी भय में मैंने लुकमान से पूछा है, यहाँ से हट जाएँ, किसी दूसरी जगह चलें?
...समझिए मतलब यहाँ तक कि जब लोग उसे बाँध रहे थे, खम्भिये से बाँधा था, तब भी बिना रोये-चिल्लाए वह मुझे ही देखे जा रहा था। शायद उसे महसूस हो गया था कि अधम उस रात ने उसके लिए क्या-क्या दुःस्वप्न देख रखे होंगे।
पुरषोत्तम बाबू का ओसारा आप लोग देख आए होंगे, नहीं देखे हैं, वहीं तो आपको सबसे पहिले जाना था महाराज, बहुत बड़ा ओसारा है, जेतना में इ सब मियाँ टोली है ओतना में त उनका घर है, उन्हीं के ओसारे के पास हमारी साइकिल रोक ली थी (सुबकने की आवाज़)। पुरषोत्तम बाबू का क़र्ज़ा खाए रहे, बहुत ज़्यादा क़र्ज़ा, नहीं तो अपने जान-पहचान वालों के साथ कोई ऐसा करता है, और उस पर भी तब जब भोरे-भोर उसको पूना जाने की रेलगाड़ी धरनी थी। आऽऽ जब हम तबरेज के दुआर पर पहुँचे और जगाने के लिए हाँक लगाया, अँजोरिया रात थी, दस बज रहे होंगे तब उसकी मउगी ने दरवाज़ा खोला और आँख मलते हुए तबरेजवा बाहर निकला, कहा था, डिट्टो इहे कहा था, समय पर आ गए चचा वरना रेलगाड़ी छूट जाती। जानते हैं? डिट्टो यही कहा था। सेम टू सेम।
जानते हैं मैडम, ऐसा कई बार हुआ था जब मुझे लगा कि मैं उसका समय था। जैसे किसी-किसी के लिए धन ही उसका समय होता है, किसी के माँ-बाप उसका समय होते हैं, किसी के लिए घड़ी की सुइयाँ समय होने का मतलब होती हैं, कुछ लोगों का सिक्का इतना मज़बूत होता है कि ख़ुद ही ख़ुद के समय होते हैं, कुछ लोगों का इकबाल जब बुलंद होता है तब वे समय का भी समय हो जाते हैं, उसी तरह मैं उसका समय था। मदरसा से कॉलेज उसे मैं ले गया, नौकरी मैंने लगवाई थी, शादी मैंने करवाई थी। (एक स्त्री की आवाज़ बीच में आती है और फिर तेज़ होती जाती है – और शादी करवाने के पैसे खाए थे। चोप्प हरामी। दलाल कहीं का)
देखिए, आप लोग, इसकी ज़बान देखिए, टूटे तलवार जितनी लम्बी ज़बान है इसकी, इसलिए मैं आप लोगों से बात नहीं करना चाहता था। कोई कहेगा कि यह मेरी पत्नी है? (स्त्री की आवाज़ आती ही रहती है, बीच-बीच में सीटी-सी एक आवाज़ आ रही है जो बयान के अगले हिस्से में स्पष्ट होगी – तुम पत्रकार लोग कहाँ से आ जाता है रोज़-रोज़, बूता है तो उसकी बेवा से मिलो न, उ पुरुषोत्तमा से मिलो, उ टपुआ से मिलो जो सब तबरेज बाबू के सीना पर चढ़कर कूदे थे। ख़ून बोकरते-बोकरते बेदम हो गया था, टपुआ उसके माथे पर रॉड मारता था, अपने भैने को लगा रहा था गिनने के लिए, वह चिल्ला-चिल्लाकर दस तक गिनता, सात-आठ तक गिनती पहुँचने के बाद लोग साँस रोक ले रहे थे और टपुआ हर दस गिनती के बाद एक रॉड मारता था। जाकर उन लोगों से पूछो न रे तुम पत्रकार लोग)
इस मर्द-मारन मेहरारू की बात पर मत जाइए। कोई नहीं मिलता त हमहीं मरा गए होते। उनको कोई न कोई चाहिए था। आप जानती हैं मैडम, उ जो कल था न, कत्ल के बाद की रात का आने वाला कल, वह कभी आया ही नहीं। हम सब, ई पूरा जवार, उसी पिछले कल में अझुरा गया है। अब तबरेज मुझे हमेशा दिखता है। बीवी कहती है कि पगला रहा हूँ। लेकिन वह लड़का जब से आप लोग आए हैं तब से तीन बार इन साहब में दिख गया है। मुझसे बतियाता है। कहता है, काहे किए ये सब चचा? देर तक बतियाता है और मेरी इस बात को कोई पतियाता नहीं है।
(स्त्री की आवाज़, यह सुनंदा है – आप भी कवि हो गए लगते हैं।)
राजबली जी सुनंदा की तरफ़ देखते हैं, दाहिने हाथ का अँगूठा ऊपर उठाकर तस्दीक़ करते हैं। सुनंदा उन्हें देखती है, तारीफ़ स्वीकार करती है और फिर राजबली वीडियो को रोकने का इशारा कर रहे हैं। मुकुंद तुरन्त ही स्पेस बटन पर उँगली रखकर रोक देता है।
मुर्दनी छाए जैसा आलम हो रखा है। इस हौलनाक रिकॉर्डिंग को देखने के बाद किसी की भी आवाज़ न फूटती देख सब के सब खाँसने-खखारने का अभिनय कर रहे हैं। राजबली जी “थम्स अप” का सराहनीय इशारा किए हुए हैं और फिर कहते हैं, “घरघराहट की आवाज़ न होती तब यह रिकॉर्डिंग बहुत अच्छी उतरी थी। औरत की आवाज़ सम्पादित करनी होगी, हमें बयान चाहिए, ड्रामा नहीं।” हँसते हुए कहते हैं, ‘तुम्हारे चारों तरफ़ कवि जमा हो गए थे’। फिर “जैसे कोई काम याद आया हो” के अन्दाज़ में बाहर निकल जाते हैं।
मैं कहना चाहता हूँ कि जो तल्खी लुक़मान की बीवी की आवाज़ में है, बयान करने की जो शक्ति लुक़मान की बीवी में दिख रही है, उसे देखते हुए हमें यह वीडियो इसी तरह शामिल कर लेना चाहिए। लेकिन नहीं करता।
क्यों?
क्योंकि दफ़्तर के मेरे दिन बुरे चल रहे हैं।
सब राजबली जी के आने का इन्तज़ार कर रहे हैं। धीरे-धीरे, कमरे में रोशनी होने के बाद, कुछ लोगों की आवाज़ लौट रही है। बोलने से पहले रजनीश सुकुल यों गला खखारते हैं जैसे भीड़-हत्या का यह बयान उनका अपना है। इस दर्ज बयान के अवसाद से उबरने के लिए गर्दन और सिर को झटका देते हैं, कहते हैं, ‘सरायकेला में कोई मर्द का बच्चा नहीं था क्या!’ फिर अपनी गर्दन झटकते हैं। उनके छह चमचे हैं और सब के सब उसी मीटिंग हॉल में उनके हस्ताक्षर की तरह उपस्थित हैं।
वे छह के छह सुकुलजी को कभी किसी अवसाद में पड़ने नहीं देते। जब सुकुल जी भय से या करुणा से उपजी वह बात कहते हैं कि ‘सरायकेला में कोई मर्द का बच्चा नहीं था क्या’ तब उन्हें टोकने के बजाय, कि स्त्री और पुरुष के बच्चे अलग-अलग नहीं होते या यह कि किसी को पता नहीं था कि करना क्या है, या यह कि प्रायोजित भीड़ से लड़ना अभी अपने देशवासियों ने सीखा नहीं है, छह के छह लोगों ने कहा, ‘सही बात है, कोई मर्द का बच्चा नहीं था क्या!’
तीन महीने पहले तक मैं इस झुंड का सातवाँ था।
फिर मुझे बेंच पर डाल दिया गया। पी.आई.पी. यानी परफ़ोर्मेंस इम्प्रूवमेंट प्लान के बहाने नौकरी से निकाले जाने की योजना पर रखा गया हूँ और दफ़्तरी शब्दावली में कहा जा रहा है कि मैं बेंच पर डाल दिया गया हूँ। इसका एक नुक़सान यह भी है कि मेरी रिपोर्टिंग सब लेते रहते हैं। क्या तो रजनीश, क्या राजबली और क्या ही एच. आर. मैनेजर वीरेंद्र सलूजा। उस घोंचू का भी मेल आया रखा है। सलूजे का बच्चा लिखता है कि मेरे उज्ज्वल भविष्य की वह कामना करता है और नौकरी से जुड़ी आगे की योजनाओं पर बात करना चाहता है।
मानव संसाधन विभाग यानी एच.आर. का बंदा अगर आपके सुखद भविष्य की कामना करने लगे तब समझ जाइए कि आपका आसन्न भविष्य ख़तरे में है। मानव संसाधन का विभाग अपने आप में विडम्बना की परिभाषा होता है। उनसे बात करने का एक ही तरीक़ा है कि कभी उनसे बात मत कीजिए। अपनी कोई परेशानी न बताइए। उनसे दूर का राब्ता रखिए। अगर मैंने यह न बताया होता कि मुझे डॉक्टर के पास नियमित जाना पड़ रहा है तब वे लोग मुझे पी.आई.पी. पर कभी न डालते।
जो मेल आया हुआ है उसका मतलब यह है कि या तो पी.आई.पी. की समय सीमा बढ़ाएगा या नौकरी से निकाल देगा। बहाल कर लेने जैसा कोई काम करना होता तब मीटिंग करने वाला मेल भेजता ही नहीं। तब इस आशय का दूसरा एक मेल आ जाता कि आज से आप बहाल कर लिये गए हैं। अब मेरी नौकरी का निर्णय भविष्य के नहीं उस सलूजा हरामख़ोर के पेट में है। और तो और उस मीटिंग में राजबली वत्स और रजनीश शुक्ला को भी रहना है। ये दोनों घाघ मुझे अपनी समस्या बताने तक न देंगे। राजबली तो फिर भी मौक़ा दे सकता है लेकिन रजनीश सुकुल? मैं अगर बहाल हो गया तब एक उँगली इसकी तरफ़ भी उठेगी कि उसे अपने मातहतों से काम लेना नहीं आता।
अभी मैं इन्तज़ार में हूँ कि यह रिकॉर्डिंग आगे सुनी जाए तब वह सीटी की आवाज़ स्पष्ट होगी। सुनते हुए आपको लगेगा कि सीटी है लेकिन नहीं, मिट्टी का चूल्हा जलाने के दौरान फोंफी से फूँकने की आवाज़ है।
यहाँ सुनंदा भी मेरी तरफ़ नहीं देखती। हमारे बीच अबोला है। बीती तीन रातें हैं। उन रातों की इच्छाएँ हैं। एक बहकी हुई रात में अपनी ग़लतियों का मेरा अपराधबोध है जो शायद यह चालीस वर्षीय अधेड़ यानी मैं इस उम्मीद में कर गुज़रा था कि सुनंदा का प्रेम हासिल हो सकेगा। लेकिन वह कहाँ हासिल हुआ। वह तमाम कोशिशें, जिसे वह नापाक हरकतें कहना पसन्द करती होगी, उसे पसन्द न आई थीं।
ऐसा होता तब साथ में इतनी सुगम अपनी वापसी नहीं होती। शायद उसने मेरी बदतमीज़ी को माफ़ कर दिया हो। या शायद अनजान बने रहना उचित समझा हो। लेकिन न मालूम क्यों, कोई भी शख़्स तारीफ़ का एक शब्द मुझ पर ख़र्च नहीं करना चाहता। जैसे यह सारा काम, सारी रिकॉर्डिंग, सारा मिलना-जुलना, तबरेज की हत्या से जुड़ी सारी सूचनाएँ सुनंदा ने अकेले जुटाई हों।
जैसे शाइस्ता, तबरेज की पत्नी, की वह रक्तिम आँखें महज़ सुनंदा ने देखी हों।
शाइस्ता को देखकर मैं घबरा गया था। उससे मैं बात तो ख़ैर क्या ही कर सकता था। या उससे कोई भी क्या बात करता जिसका पति भीड़ ने मार दिया हो। उन्नीस वर्ष की बच्ची या स्त्री। यह उम्र ऐसी हताशा झेलने के लिए नहीं होती कि घर से दस किलोमीटर दूर आपके पति को एक राजनीतिक भीड़ पीट-पीटकर मार डाले। कहने की बात यह कि मृत्यु से बुरी दूसरी कोई दुखिया बात क्या होगी लेकिन वह जो कल्पना होती होगी जिसमें शाइस्ता, तबरेज को जीवन की गुहार लगाते हुए देखती होगी, उस पर पड़ती हुई चोटों को मन पर महसूस करने की कोशिश करती होगी, वह लाचारी किस क़दर दुखी करने वाली होती होगी।
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