शिरीष खरे की किताब नदी सिंदूरी का एक अंश, राजपाल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।


कल्लो तुम बिक गईं!

“आज कल्लो से जी भर मिल लो, बात कर लो, कल कल्लो जा रई है।”

मम्मी बोलीं और मैं समझ गया कि कल्लो का सौदा पक्का हो गया है, कई दिनों से ग्राहक का इंतजार किया जा रहा था, अब जाकर कल्लो बिक गई। “कौन खरीदार”, “किस गांव जाएगी”, जैसी बातें फिर क्या मतलब की रह गई थीं जब कल्लो बिक ही गई थी तो! मतलब की बात तब एक यही रह गई थी कि कल्लो घर पर घर वालों के लिए महज कुछ घंटों की मेहमान रह गई थी।

मैं बच्चा था तो बचकानी बातें ही सोचे जा रहा था, यही कि काले रंग और बड़ी काली आंखों वाली वाली हमारी कल्लो गाय जो बचपन से हमारे साथ रही, सालों दूध पिलाती रही, अचानक ही हमेशा के लिए हमें छोड़ कैसे जा सकती है! लेकिन, भावुकता में मैं भूल गया था कि जानवर हमें नहीं छोड़ते, हम जानवर को पालतू बनाते हैं और एक दिन उन्हें छोड़ देते हैं। कल्लो हमें नहीं छोड़ रही थी, बल्कि हम उसे छोड़ रहे थे किसी नये मालिक के हाथों उसे बेच कर। और, छोड़ भी कुछ इस तरह से कि उसके जाने की बात एक सूचना भर रह गई थी।

शाम से रात हो गई थी। अपने घर की दहलान में कुछ ज्यादा ही ऊंची जगह पर रखी टीवी माने दूरदर्शन पर सभी एकटक चित्रहार देखे जा रहे थे-

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“मेरा दिल भी कितना पागल है ये प्यार जो तुमसे करता है, पर सामने जब तुम आते हो, कुछ भी कहने से डरता हूं...”

तीन दशक पहले “दूरदर्शन युग” के आदमी से अब का कोई रिपोर्टर माइक अड़ा यह पूछे कि उन दिनों बॉलीवुड गानों के कार्यक्रम चित्रहार को देख आप कैसा महसूस करते थे, तो...! खासकर हम गांव वालों से कि साल 1991 में प्रदर्शित साजन फिल्म का गाना साल 1994 में जब चित्रहार पर चलता था तो भी वह क्यों हमारे लिए नया ही था!

गांव में तब भी कहां टॉकीज-वॉकीज हुआ करती थी, सो दूरदर्शन पर राष्ट्रीय समाचार के बाद आने वाला चित्रहार पूरा हफ्ता हमें ज्यादा ही इंतजार कराता था। बुध के चित्रहार के लिए सोम, मंगल किसी तरह से कटता, फिर शुक्र के चित्रहार के लिए गुरु का दिन भारी पड़ जाता था। आधे घंटे का चित्रहार जब आता तब शायद ही ऐसा हुआ हो कि उसमें पांच से ज्यादा गाने दिखाए गए हों, इसलिए हर गाने की कीमत हमें मालूम थी और यह भी कि हमारी उम्मीद से उलट कोई गाना अगर बुरा निकलता तो कैसे सारा गुस्सा दूरदर्शन की स्क्रीन के आगे फूट पड़ता, “बहुतई बदमाश हो गए होंगे!”

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कभी यह बदमाशी भी होती कि बीच में दो-चार विज्ञापन ज्यादा घुसेड़ दिए जाते और तब पांच की बजाय चार गाने ही देखने को मिलते, तब एक गाना सीधे-सीधे काटे जाने पर मन तो करता कि दूरदर्शन को एक शिकायती-पत्र लिख ही दिया जाए कि अति हो गई आदरणीय, चित्रहार जैसे मनोरंजक कार्यक्रम की समयावधि अब बढ़ाई जाए!

मगर, दूरदर्शन वालों से ज्यादा शिकायत ग्रामीणों की बिजली-विभाग वालों से रहती। वजह, उन दिनों गांव में लाइट आती कम थी, जाती ज्यादा थी तभी तो अक्सर पूछा यह जाता था, “काय, लाइट आ गई का?” इसलिए, चित्रहार हो या रविवार सुबह की रंगोली, अमिताभ-धमेन्द्र की मारधाड़ वाली कोई फिल्म हो या चंद्रकांता जैसा लोकप्रिय धारावाहिक, यहां तक कि कृषि-दर्शन या देर रात प्रसारित शास्त्रीय संगीत का अखिल भारतीय कार्यक्रम से लेकर “रुकावट के लिए खेद है” ही क्यों न चल रहा हो, मन में एक धुकधुकी लगी ही रहती थी, '“कहूं, लाइट न चली जाए!'“ और, अफसोस वाली बात तो यह कि बड़ी निर्दयता के साथ लाइट चली भी जाती थी।

नवंबर 1994 में ऐश्वर्या राय दक्षिण-अफ्रीका से मिस-वर्ल्ड का ताज पहन कर लौटी थीं और दिसंबर यानी दिवाली के बाद की हाड़तोड़ ठंड के समय सब अपने-अपने बिस्तर पर रजाइयां ओढ़े इसी धुकधुकी में चित्रहार देखे जा रहे थे, '“कहूं, लाइट न चली जाए!” आस-पड़ोस से जमा हुए कुछ लड़के भी नीचे दरी पर शाल लपेटे कंपकंपाते “ब्लैक एंड व्हाइट” टीवी के कल्पना-लोक में खोये हुए थे।

एक मैं था जो तब चारपाई पर पड़ा सबसे उलट ही प्रार्थना कर रहा था। प्रार्थना यह कि लाइट चली जाए, ताकि टीवी बंद हो जाए और सब यहां से उठें, जाकर सो जाएं! उन दिनों गांव में आमतौर पर दिन डूबने से पहले सभी का खाना हो जाता था, पर किस्मत से यदि लाइट बनी रहती तो हमारे घर आए लड़के दस, ग्यारह, बारह बजे रात या तब तक जब तक कि उनकी आंखों में नींद न भर जाए टीवी के आगे से टस से मस न होते। लेकिन, एक मैं था जो उस समय यह चाह रहा था कि लाइट चली जाए, ताकि दहलान, घर, आसपास घुप्प अंधेरा हो जाए और ऊंघने को हो रहे लड़कों के सोने से पहले उन्हें झकझोर कर अपने-अपने घर जाने के लिए कहा जाए।

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दरअसल, शाम के बाद से मन बहुत भारी हो गया था। इतना ज्यादा भारी कि चित्रहार के गाने तक बहला नहीं पा रहे थे, न किसी से बात करते बन रहा था, न कुछ खाने का ही जी कर रहा था। खाली पेट उदासी का घेरा बढ़ता जा रहा था। ऐसी तकलीफ में चुपचाप पड़े बस यही सोच रहा था कि लाइट चली जाए, और जैसा कि अक्सर होता था, लाइट चली भी गई!

'“अरे! अभे पांच मिनट और हते, अभे तो एकाध गाना और आतो। बुध को नये गाना दिखात हैं, मनो लाइट को तो जानई होत है!” दरी पर बैठा रामप्रसाद कुंभार तुरंत टॉर्च जलाते हुए रुआंसी-सी आवाज में लाइनमेन को गालियां देते हुए बोले जा रहा था। तब मम्मी भी पीतल की चिमनी और माचिस अपने सिरहाने एक स्टूल पर रखना नहीं भूलती थीं। गांव में लाइट रात जाती तो अमूमन सुबह ही लौटती। इसलिए मम्मी की जलाई चिमनी पूरी रात जलती रहती, लेकिन मैं दुख में इतना डूबा हुआ था कि वह बुझ भी जाती तो भी मुझे उस रात अंधेरे से डर नहीं लगता। जब कोई दुख में ज्यादा डूब जाता है तो अंधेरा बेमानी हो जाता है।

यही बात थी कि रोजाना की तरह उस शाम भी मैं स्कूल से लौटते ही घर के पिछवाड़े सटी टंकी का पानी मुंह पर उलीच रहा था, साबुन हाथ-पैरों में मल रहा था, कि तभी मम्मी ने किचन की खिड़की से एक ऐसी बात बताई कि कलेजा धक से रह गया था। मैं टॉवल हाथ में लिए वहीं के वहीं उकड़ू बैठ गया था।

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घर के पिछवाड़े जिस जगह पानी की टंकी थी उसी से बस आठ-दस कदम दूर ही बंधी बैठी कल्लो को क्या पता था कि वह बिक गई है। उसे क्या पता था कि हमारे घर में तो वह उसकी आखिरी रात थी। शाम को ही मैं कल्लो के नजदीक गया और उसकी गर्दन बांहों में भर अपना चेहरा उसके चेहरे पर धर दिया। कल्लो की पीठ को सहलाया, उसके माथे को कई-कई बार चूमा, पुचकारा, उसकी प्यारी आंखों को जी भर देखा, दोनों हथेलियों से उसका मुंह पकड़ नाक से दुलार किया, बोला, '“सुन रई हो कल्लो! कल तुम जा रई हो, अब हम तो बड़े हो गए, तुमाये नये घर में तुम्हें हो सकत है कि नन्हे मोड़ा-मोड़ी मिलहे। हमें याद कर रंभाना मती उतो तुम, हूंम्म!”

गर्दन पर हाथ फेरते हुए मैंने देखा कल्लो के गले से पीतल की घंटी उतार ली गई थी, तभी देर से उसकी उपस्थिति में बजने वाली टन-टन की आवाज मुझे सुनाई नहीं दे रही थी। कल्लो हमारे घर इतने साल पहले आई थी कि तब मुझे ही याद नहीं मैं किस कक्षा में पढ़ता था। इतना भर याद है कि जब टीवी हमारे घर नहीं आई थी, तो हमें बहुत समय कल्लो के आसपास रहने और उससे बतियाने को मिलता था। तब उसके गले में बंधी पीतल की घंटी बजती रहती थी।

कल्लो के रहते हमारा घर छोटे से बड़ा और कच्चे से पक्का होता गया और इधर खपरैल छत के नीचे सालों-साल कल्लो खूंटे से बांधी जाती रही। इस बीच कल्लो से जुड़ी कई सारी यादें थीं, पर जब वह अपनी जगह नहीं होगी तो क्या यह जगह भी पक्की बना दी जाएगी! फिर क्या उसे याद करते हुए भी यह जगह वीरान और काटने को दौड़ती हुई-सी लगेगी!

कल्लो ने कान झटक कर फिर तिरछा चेहरा लिए मेरी ओर मासूमियत से देखा तो याद आ गया कि कैसे कल्लो जब बछड़ा जनती थी तब हमें हमारे साथ खेलने के लिए एक नया भाई मिल जाता। कल्लो के थनों पर झटके मार-मार बछड़ा कल्लो का दूध पिया करता था और कल्लो के गले में बंधी पीतल की घंटी टनटनाती रहती। कल्लो इतनी सीधी थी कि मम्मी सालों-साल उसे दुहती रहीं, मगर एक बार भी यह सुनने को नहीं मिला कि कल्लो ने कभी उन्हें लात मारी हो।

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हमने घर के लिए ही गाय पाली थी, कभी दूध नहीं बेचा था। फिर कभी कोई जरूरतमंद दूध मांगने आता भी तो मुफ्त ही छोटा लोटा भर उसे दूध दे देते। बछड़े को कल्लो का दूध पीने के लिए दूध ही दूध होता। यदि गर्मियों के दिनों में कभी-कभार आंगन में कल्लो और बछड़े को खड़ा करके मैं मम्मी के साथ दोनों पर बारी-बारी से छोटी बाल्टियां भर-भर कर पानी उलीचा करता था। उनके बालों से कीड़े निकालकर मिट्टी के तेल की कटोरी में डालने का गजब खेल खेलता।

मेरी नजर कल्लो के मुंह के आगे थोड़ी दूर भूसे से भरे कोने पर गई, सोचा कि जब कल्लो जाएगी तो यह भूसा किस काम का रह जाएगा! हां, इस भूसे में हम कच्चे सीताफल, आम, केले दबाकर रखा करते थे पकने के लिए। मम्मी हर रात कल्लो को खाने उसके मुंह के पास तगाड़ी में भूसा डालतीं और उसे खूंटे में अच्छी तरह बांधना न भूलतीं, इस डर से कि वह हरे चारे के लालच में चरते-चरते सुबह तक कहीं दूर न निकल जाए! लेकिन, उस रात वह हमारे घर खूंटे में आखिरी बार बंधी थी कि अगले दिन उसे बहुत दूर जो हकाल दिया जाना था, इतनी दूर कि फिर हम उसे कभी देख नहीं सकते थे। इतनी दूर कि वह रंभाए तब भी हम उसका रंभाना नहीं सुन सकते थे।

ऐसा क्या था जो कल्लो को बेचना जरूरी हो गया था। सिर्फ कुछ हजार रुपयो के लिए? हालांकि, हम बड़े हो रहे थे और यह बात भी अच्छी तरह जान रहे थे कि रुपयो से सुविधाएं हासिल होती हैं और सुविधाओं से खुशियां हासिल होती हैं। कई बार हमारे भीतर का अभाव हमें लालची बनाता है, जिसका पछतावा हमें बहुत बाद में होता है।