राजीव भार्गव की किताब राष्ट्र और नैतिकता: नए भारत से उठते 100 सवालका एक अंश, अभिषेक श्रीवास्तव द्वारा अनुवादित वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।
संवैधानिक धर्मनिरपेक्षता या अवसरवादी पार्टी सेक्युलरवाद?
दुनिया में कुछ ही देश ऐसे होंगे जहाँ भारत की तरह धर्मनिरपेक्षता इतनी ज्यादा बहसतलब चीज़ होती होगी। यहाँ तो लगातार इस शब्द का बहुत दुरुपयोग हुआ है और इसे खूब गालियाँ पड़ी हैं। भारत में और कोई शब्द नहीं है जिसे इतना पीटा गया हो कि वह निरर्थक बन चुका हो। हो सकता है कि सेक्युलरिज्म के इर्द-गिर्द मची चीख-पुकार वह क़ीमत हो, जो अपने देश के सार्वजनिक और राजनीतिक विमर्श में इसके अभिन्न अंग बनने की प्रक्रिया में हमें चुकानी पड़ रही हो।
एकाध दशक पहले तक भारतीय सेक्युलरिज्म पर इसके विरोधियों द्वारा आरोप लगाया जाता था कि यह धर्म-विरोधी है। धीरे-धीरे इस पर अल्पसंख्यक-समर्थक की मुहर लगा दी गई। हाल के दिनों में हमें लगातार कहा जा रहा है कि या तो धर्मनिरपेक्षता को चुन लो या फिर विकास को, गोया सेक्युलर होना विकासविरोधी होना हो। एक अजीबोगरीब घटनाक्रम में जुलाई 2017 में हमने देखा कि कैसे बिहार में धर्मनिरपेक्षता और भ्रष्टाचार को एक दूसरे का जुड़वाँ भाई ठहरा दिया गया और कहा गया कि सेक्युलरिज्म के अलमबरदार ख़ुद भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए एक उछाल मार रही अर्थव्यवस्था की गति को रोक रहे हैं।
सेक्युलरिज्म की यह गति हुई कैसे? यह कहानी वैसे तो बहुत जटिल है और यहाँ मैं उसकी भूमिका भी नहीं लिख पाऊँगा, फिर भी इस कहानी का एक सूत्र संक्षेप में यहाँ रखना चाहूँगा – संवैधानिक धर्मनिरपेक्षतावाद का पतन, जिसे मैं पार्टी सेक्युलरवाद कहना पसन्द करता हूँ।
यूरोपीय और भारतीय सेक्युलरिज्म
ये दो क्रिस्में क्या हैं? भारत के संवैधानिक धर्मनिरपेक्षतावाद को समझने के लिए हमें उसे धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय अवधारणाओं के बरअक्स रखकर देखना होगा।
यूरोप में लैटिन ईसाइयत जब खंडित हुई, तब उसने कई धार्मिक युद्धों को जन्म दिया। विधर्मियों के बहिष्कार और सफाये ने वहाँ मोटे तौर पर एकल धर्माधारित समाज बनाए। हर यूरोपीय राज्य ने खुद को समाज के एक या दूसरे प्रभुत्वशाली चर्च के साथ जोड़ लिया। मसलन, इंग्लैंड एंग्लिकन हो गया, स्कैंडिनेविया लूथरन हो गया, स्पेन और इटली कैथोलिक बन गए, डेनमार्क काल्विनिस्ट हो गया, इत्यादि। कालांतर में हालाँकि यह महसूस किया गया कि चर्च राजनीति में बहुत हस्तक्षेप कर रहा है और सामाजिक उत्पीड़न को जन्म दे रहा है। इसके बाद समाज को चर्च से मुक्त करने यानी चर्च की ताकत को छीनने का एक अभियान शुरू हुआ। राज्य और चर्च के बीच जंग छिड़ गई। इस जंग में मोटे तौर पर यूरोपीय राज्यों ने खुद को बचा लिया। इस तरह, चर्च और राज्य का निर्णायक अलगाव यूरोप में और बाद में अमेरिका में सेक्युलरिज्म का पारिभाषिक लक्षण बना।
हमारे यहाँ, कम से कम बीसवीं सदी तक परिदृश्य बिलकुल अलग था क्योंकि यहाँ धार्मिक विविधता को खत्म करने की कोशिशें नहीं हुई थीं। राज्य हमेशा हो विभिन्न धर्मों और धार्मिक समूहों से निपटने का रास्ता खोज निकालता था। शायद हो कोई ऐसा राज्य रहा होगा जो सभी धर्मों की सरपरस्ती न करता रहा हो। आधुनिक दौर में यही व्यवहार धार्मिक बहुलता की रक्षा का बायस बना। आधुनिक राज्य को सभी धर्मों का सम्मान करना था और किसी को भी तरजीह नहीं देनी थी। धर्मों का सम्मान करने का सीधा-सा आशय यह था कि राज्य सभी धर्मों से दो हाथ की दूरी बनाकर रखे। इसके अलावा, कुछ दूसरे मौक़ों पर राज्य का काम था धार्मिक जीवन को बेहतर बनाने में योगदान देना, मसलन धार्मिक समुदायों द्वारा चलाए जानेवाले स्कूलों को अनुदान देना। चूँकि इसी के समानांतर जाति की संस्था लगातार दलितों और औरतों का दमन कर रही थी, लिहाज़ा राज्य को वहाँ भी हस्तक्षेप करना पड़ता था जहाँ धर्म दमनकारी और ऊँच-नीच पैदा करनेवाला था। इसी के मद्देनजर छुआछूत को प्रतिबंधित किया गया और औरतों से भेदभाव करनेवाले पर्सनल क़ानूनों में सुधार लाया गया।
भारत के संवैधानिक धर्मनिरपेक्षतावाद में शर्त है कि भारतीय राज्य न तो धर्मों का अनावश्यक ज्यादा सम्मान करे और न ही उनका अपमान करे। राज्य द्वारा धर्मों का आलोचनात्मक सम्मान भारत की संवैधानिक धर्मनिरपेक्षतावाद की पहचान है। इसके अलावा, संविधान कहता है कि राज्य सभी धर्मों से मूल्य आधारित दूरी बनाकर रखेगा यानी उसका हस्तक्षेप या अ-हस्तक्षेप इस बात पर निर्भर करेगा कि कौन-सा कदम स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को सबसे ज्यादा प्रचारित कर रहा है।
पिछले कोई चालीस साल में हालाँकि हमने एक और किस्म के धर्मनिरपेक्षतावाद को उगते देखा है। इसे मैं पार्टी सेक्युलरवाद कहता हूँ। इसका अभ्यास वे राजनीतिक दल करते हैं, जिन्हें मोटे तौर पर सेक्युलर ताकतों के नाम से पुकारा जाता है। इस सेक्युलरवाद ने मूल विचार में से सिद्धान्तों को निकाल फेंका है और उसकी जगह अवसरवाद को स्थापित कर दिया है – यानी सभी धर्मों से अवसरवादी दूरी। ‘आलोचनात्मक सम्मान’ में से इन दलों ने आलोचनात्मक को बाहर कर दिया और सम्मान को हर धार्मिक समूह के सबसे सनकी, सबसे मुखर, सबसे कट्टर और आक्रामक धड़े के साथ सौदेबाजी में तब्दील कर डाला। इस अवसरवाद के तहत राजनीतिक दल अब धर्मों को अपने से दूर रखते हैं या फिर हस्तक्षेप करते हैं, लेकिन तभी जब वह उनकी पार्टी या उनकी राजनीति के हितों की पूर्ति कर सके। इसी किस्म के अवसरवाद का नतीजा रहा कि यहाँ सेटेनिक वर्सेज पर प्रतिबंध लगा दिया गया, बाबरी मस्जिद / रामजन्मभूमि के ताले खोले गए, शाह बानो के मुक़दमे में औरतों को उनके अधिकारों से महरूम किया गया और बुखारी जैसे धार्मिक नेताओं के साथ सौदेबाजी की गई। धार्मिक समूहों के बीच सबसे अच्छे धड़ों का सम्मान करने के बजाय राजनीतिक दलों ने उन धड़ों के साथ सौदे किए जो सबसे कम सम्मान के लायक़ थे। यानी पार्टी सेक्युलरवाद का अर्थ हुआ राज्य और राजनीतिक दलों का सबसे खुराफ़ाती और सबसे ज़्यादा राजनीतिकृत धार्मिक समूहों के साथ अवसरवादी दूरी बरतना। जाहिर है, फिर ऐसा आचार बहुसंख्यकवादी हिन्दू राजनीति के पनपने की उर्वर भूमि बन गया, जिनके प्रवक्ता अब बड़ी आसानी से सेक्युलरों के धार्मिक समूहों के साथ राजनीतिक सौदों पर सवाल कर सकते थे और इसकी आड़ में अपनी अनैतिकता को छुपा सकते थे।
यह अफ़सोस की बात है कि चुनावी राजनीति ने हमारे संवैधानिक सेक्युलरिज्म को पूरी तरह दरकिनार कर दिया है या उसे भ्रष्ट बना दिया है। एक बात तो माननी होगी कि चुनावी राजनीति अवसरवाद को पैदा करती है। अगर आपका कुल उद्देश्य चुनाव जीतना है तो येन केन प्रकारेण आप ऐसा करेंगे। इसी बिंदु पर हमें अदालतों, आज़ाद प्रेस, सतर्क नागरिकों और नागरिक समाज कार्यकर्ताओं की जरूरत आन पड़ती है कि वे पहल करें और इन तथाकथित सेक्युलर दलों को आईना दिखा सकें कि उन्हें क्या करना है और क्या नहीं। मैं अकेले राजनीतिक दलों को दोष नहीं दे रहा हूँ। यह हमारी सामूहिक विफलता है। यह भार अब हम सब पर है कि कैसे महात्मा गांधी, आंबेडकर और नेहरू द्वारा मिलकर गढ़े गए धर्मनिरपेक्षतावाद का दुरुपयोग होने से उसे बचाएँ।
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