शशि थरूर की किताब अम्बेडकर: एक जीवन का एक अंश, अमरेश द्विवेदी द्वारा अनुवादित, वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित।

संविधान के मसौदे को संविधान सभा में तीन बार पढ़ा गया और उस पर गहन चर्चा हुई। सभा में हर अनुच्छेद पर चर्चा हुई, वाद-विवाद हुआ, उसकी भाषा बदली गयी और राजनीतिक समझौतों को दुरुस्त किया गया। अम्बेडकर के कुछ क्रान्तिकारी सुझावों, जैसेकि कृषि और मुख्य उद्योगों के राष्ट्रीयकरण के सुझाव को ख़ारिज कर दिया गया। सदस्यों ने क़रीब सात हज़ार छह सौ संशोधन प्रस्ताव दिये जिन पर विचार करने और उनका समाधान किये जाने की ज़रूरत थी। हर अनुच्छेद और संशोधन ने प्रश्नों और वक्तव्यों की शृंखला खड़ी कर दी, और संविधान सभा के अध्यक्ष के रूप में अम्बेडकर ने उनका जवाब और स्पष्टीकरण दिया। चर्चा को संचालित और नियन्त्रित करने का उनका प्रदर्शन इतना आधिकारिक, तार्किक और प्रभावशाली था कि संविधान ने जनता की कल्पना में अम्बेडकर के शब्दों में ही आकार लिया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सामाजिक बदलाव के लिए अम्बेडकर की जुनूनी प्रतिबद्धता संविधान की मूल अवधारणा में समाहित थी। संविधान सभा में समर्थकों और आलोचकों ने समान भाव से अम्बेडकर के प्रयास की सराहना और प्रशंसा की; कई लोगों ने कहा कि अनथक कठोर परिश्रम का उनके पहले से ही ख़राब स्वास्थ्य पर गम्भीर असर पड़ा है, पर उसके बावजूद वह बिना विश्राम किये जुटे रहे। कई लोगों ने उन्हें ‘आधुनिक मनु’ कहा, एक अस्पृश्य के लिए इस शब्द के प्रयोग को विडम्बना ही कहा जायेगा। (मनु प्राचीन विधि निर्माता थे जिन्होंने अन्य विधियों के साथ ही अस्पृश्यता को संहिताबद्ध किया था।)

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भारत का संविधान दुनिया का सबसे लम्बा संविधान और एक असाधारण दस्तावेज़ था। संविधान सभा में 4 नवम्बर, 1948 के अपने वक्तव्य में अम्बेडकर ने कहा :

यह व्यवहार्य, लचीला और पर्याप्त मज़बूत संविधान है जो शान्ति और युद्ध दोनों काल में देश को एकजुट रख सकता है। अगर मैं यह कहूँ कि नये संविधान के अन्तर्गत यदि चीज़ें ग़लत दिशा में जाती हैं तो वह इस वजह से नहीं होगा कि हमारा संविधान ख़राब है। तब हमें कहना होगा कि लोग अच्छे नहीं।

अम्बेडकर के संविधान में हर नागरिक के लिए कई तरह के मौलिक अधिकार और स्वतन्त्रता का प्रावधान किया गया था और उनकी सांविधानिक सुरक्षा सुनिश्चित की गयी थी; जैसेकि अभिव्यक्ति और सार्वजनिक स्थान पर एकत्र होने की स्वतन्त्रता, धर्म की स्वतन्त्रता, यहाँ तक कि अपने धर्म के प्रचार की भी स्वतन्त्रता का प्रावधान था। इस संविधान में अस्पृश्यता के उन्मूलन की दोबारा पुष्टि की गयी और सभी प्रकार के भेदभाव को ग़ैर-क़ानूनी क़रार दिया गया। ये अम्बेडकर ही थे जिन्होंने सुनिश्चित किया कि संविधान में महिलाओं को व्यापक आर्थिक और सामाजिक अधिकार मिलें। लेकिन वह प्रावधान जिस पर उनकी ख़ास छाप थी और जो इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया, वह था दुनिया का सबसे पुराना और दूरगामी परिणाम वाला वह सकारात्मक क़दम जिसके तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों के लिए शैक्षणिक संस्थानों, विधायिका, सरकारी संस्थानों और सिविल सेवा में रोज़गार की गारंटी की व्यवस्था की गयी थी।

दलित विद्वान के. राजू ने इसके बारे में लिखा :

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संविधान सभा ने भारतीय संविधान में कई महत्त्वपूर्ण अधिकार शामिल किये ताकि समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धान्त को भविष्य में भारत में होने वाले हर विकास का आधार बनाया जा सके। मौलिक अधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 ने क़ानून के समक्ष समानता प्रदान की; अनुच्छेद 15 ने धर्म, वर्ग, जाति, लिंग, जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध किया और बिना भेदभाव के सार्वजनिक स्थानों पर सबका प्रवेश सुनिश्चित किया; अनुच्छेद 16 ने राज्य के लिए मूल सिद्धान्त का काम किया ताकि पिछड़े वर्ग के नागरिकों के लिए नियुक्तियों और रोज़गार में राज्य आरक्षण का प्रावधान कर सके; अनुच्छेद 17 ने अस्पृश्यता का निषेध किया। अनुच्छेद 46 के ज़रिये नीति निर्देशक सिद्धान्तों ने राज्य पर यह ज़िम्मेदारी डाली कि वह अनुसूचित जातियों के आर्थिक और शैक्षणिक विकास के लिए नीतियाँ बनाये और सामाजिक अन्याय से उनकी रक्षा करे।

अम्बेडकर ने महात्मा गांधी के कुछ विचारों का विरोध किया जिसकी पैरवी संविधान सभा में मौजूद कुछ कट्टरपन्थी कर रहे थे। ख़ासतौर से उन्होंने भारतीय गाँवों को भारत के संवैधानिक स्थापत्य का मूल सिद्धान्त बनाने की गांधीवादियों की कामना को पुरज़ोर तरीक़े से ख़ारिज कर दिया : उन्होंने कहा, ‘संविधान के मसौदे की एक और आलोचना ये है कि इसके किसी भी भाग में भारत की प्राचीन राजनीति का प्रतिनिधित्व नहीं है। ये कहा जाता है कि नये संविधान को राज्य की प्राचीन हिन्दू मॉडल की अवधारणा पर आधारित होना चाहिए और पश्चिमी सिद्धान्तों को शामिल करने की बजाय नये संविधान का निर्माण ग्राम पंचायत और ज़िला पंचायत पर आधारित होना चाहिए। कुछ अन्य लोग भी हैं जिनके विचार और भी उग्र हैं। वे कोई केन्द्रीय या प्रान्तीय सरकार नहीं चाहते। वे चाहते हैं कि भारत में केवल ग्रामीण सरकारें हों। ग्रामीण समुदाय के लिए भारतीय बुद्धिजीवियों का प्रेम निश्चित तौर पर काफ़ी ज़्यादा है,...लेकिन स्थानीयता की सड़ाँध के अलावा गाँवों में क्या है, अज्ञान का अँधेरा, संकुचित मानसिकता और साम्प्रदायिकता? मैं प्रसन्न हूँ कि संविधान के मसौदे में गाँव को नकारा गया है और व्यक्ति को इसकी इकाई के रूप में स्वीकार किया गया है।’ गांधीवादी इस बात से बेहद नाराज़ हो गये कि उनके विचारों का तिरस्कार किया गया है, लेकिन स्पष्ट दृष्टिकोण वाले अम्बेडकर के आधुनिक विचारों की जीत हुई।

पर अम्बेडकर हर मुद्दे पर अपनी बात मनवा नहीं सके। वह समान आचार संहिता पर लोगों को सहमत करा पाने में असमर्थ रहे, जो कि संविधान के वांछित उद्देश्यों में शामिल थी। वह अनुच्छेद 370 के पक्ष में नहीं थे, जो कश्मीर को विशेष संवैधानिक दर्जा प्रदान करता था, लेकिन उन्हें नेहरू और पटेल की इच्छा का समर्थन करना पड़ा। वह चाहते थे कि संविधान कृषि भूमि, शिक्षा, स्वास्थ्य और बीमा का स्वामित्व राज्य को सौंप दे। ऐसा सोचने के पीछे उनकी मान्यता यह थी कि समाज के आर्थिक ढाँचे से निकले मौलिक अधिकार, और ऊँची जातियों के वर्चस्व वाले ग़ैर बराबरी वाले समाज में अनुसूचित जातियों के मूल अधिकारों को गारंटी नहीं दी जा सकेगी। भारत के लिए अम्बेडकर राष्ट्रपति शासन प्रणाली चाहते थे, लेकिन संसदीय शासन प्रणाली के प्रति बहुमत का तगड़ा झुकाव देख उन्होंने अपनी माँग छोड़ दी। भारतीय राष्ट्रवादी वह व्यवस्था चाहते थे जिसे औपनिवेशिक शासकों ने उन्हें देने से इनकार कर दिया था–वो थी वेस्टमिंस्टर व्यवस्था जिसका लाभ ब्रितानी लोग ले रहे थे। विवाद के हर एक मुद्दे पर जब सर्वसम्मति बन गयी तो संविधान को स्वीकार करने की अम्बेडकर ने मुखर रूप से वकालत की। 25 नवम्बर, 1949 को संविधान के मसौदे को सर्वसम्मति से अंगीकार करने के लिए उन्होंने एक प्रभावशाली भाषण दिया। उनके भाषण को आज भी उद्धृत किया जाता है जिसमें उन्होंने कहा था कि अत्यधिक संघर्ष से हासिल की गयी भारत की आज़ादी और लोकतन्त्र को सँभाल कर रखना ज़रूरी है, ‘अराजकता के व्याकरण’ (ग्रामर ऑफ़ अनार्की) का परित्याग करना होगा, व्यक्ति पूजा छोड़नी होगी और केवल राजनीतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक लोकतन्त्र के लिए भी काम करना होगा। उन्होंने बार-बार स्पष्ट किया कि लोकतन्त्र शासन का एक तरीक़ा ही नहीं बल्कि सामाजिक संगठन की एक व्यवस्था भी है।